चुनाव आय़ुक्त नियुक्ति विधेयक को आगे टाल कर केन्द्र सरकार ने लोकतान्त्रिक सहनशीलता का परिचय दिया है और साफ कर दिया है कि इस मुद्दे पर सरकार सब पक्षों की राय की कद्र करती है। पहले ऐसा माना जा रहा था कि संसद के पांच दिवसीय विशेष सत्र में यह विधेयक पेश किया जायेगा मगर अब सरकार ने इसे आगे के लिए मुल्तवी कर दिया है। इसकी एक वजह यह भी मानी जा रही है कि देश के अधिसंख्य अवकाश प्राप्त मुख्य चुनाव आयुक्तों ने सरकार को पत्र लिख कर कहा था कि चुनाव आयुक्तों का पद स्तर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों से नीचे न किया जाये। विधेयक में चुनाव आयुक्त का स्तर कैबिनेट सचिव के बराबर करने का प्रस्ताव था जो कि केन्द्र सरकार की नौकरशाही का सर्वोच्च अधिकारी होता है। चूंकि चुनाव आयोग संवैधानिक संस्था होती है और सीधे संविधान से ताकत लेकर अपना कामकाज करती है अतः इसके आयुक्तों का स्तर कार्यपालिका के सर्वोच्च अधिकारी के बराबर करना भी इसका स्तर नीचे करना माना जाता। चुनाव आयोग के पास अर्ध न्यायिक अधिकार भी होते हैं जो कि इसे संविधान देता है अतः इसे सरकार का अंग भी नहीं माना जाता है।
भारत के प्रशासनिक ढांचे में न्यायपालिका और चुनाव आयोग सरकार के अंग नहीं बनाये गये हैं और ये स्वतन्त्र व स्वायत्तशासी हैं और इनका कार्य भी राजनीति से परे ‘अराजनैतिक’ होता है अतः चुनाव आयोग का रुतबा भी हमारे संविधान के ढांचे में कार्यपालिका, न्यायपालिका व विधायिका के समकक्ष ही रखा गया है। हालांकि चुनाव आयोग के पास देश की राजनैतिक व्यवस्था अर्थात राजनैतिक दलों को अनुशासित रखना और इन्हें संविधान के प्रति जवाबदेह बनाये रखने की जिम्मेदारी होती है परन्तु यह कार्य वह पूरी तरह अराजनैतिक बने रह कर एक न्यायिक संस्था के रूप में ही करता है। भारत में एक गलतफहमी अक्सर पाई जाती है कि हम चौखम्भा राज को न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका व स्वतन्त्र प्रेस को मानते हैं जबकि संविधान निर्माता डा. भीम राव अम्बेडकर ने देश को संविधान सौंपते हुए कहा था कि भारत के लोकतन्त्र के चार खम्भे न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका व चुनाव आयोग होंगे। इनमें चुनाव आयोग का कार्य लोकतन्त्र की आधारभूत जमीन तैयार करना होगा जिस पर बाकी तीन खम्भे खड़े होंगे। यदि हम गौर से देखें तो यह चुनाव आयोग ही है जो निष्पक्ष व स्वतन्त्र और निर्भयता के माहौल में चुनाव कराने की जिम्मेदारी निभाता है और देश को विधायिका सौपता है जिसके पास कानून बनाने से लेकर उनमें संशोधन करने का अधिकार होता है और कार्यपालिका के नेतृत्व में राष्ट्र व इसके लोगों के विकास की परियोजनाओं को सिरे चढ़ाता है। न्यायपालिका देश का शासन संविधान के तहत चले इसकी गारंटी करती है। मगर 1967 तक देश में चुनावों को लेकर कभी किसी प्रकार का विवाद पैदा नहीं हुआ अतः पचास के दशक के अंत से साठ के दशक तक समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया ने चौखम्भा राज की परिभाषा में चुनाव आयोग की जगह स्वतन्त्र प्रेस को डाल दिया और इसे लोकतन्त्र के पहरेदार की भूमिका बख्शते हुए चौथा खम्भा बता दिया परन्तु चौखम्भा राज की यह लोकोक्त परिभाषा थी जबकि शास्त्रोक्त परिभाषा में चुनाव आयोग ही था। अतः चुनाव आयोग की भूमिका को कम करके देखने का कभी सवाल ही पैदा ही नहीं हुआ। संभवतः केन्द्र सरकार ने इन्हीं सब तथ्यों को देखते हुए विधेयक को आगे के लिए टाल दिया है। संविधान में मुख्य चुनाव आयुक्त समेत चुनाव आयुक्तों को नियुक्त करने का तो अधिकार राष्ट्रपति को दिया गया है मगर उन्हें पद से हटाने का अधिकार केवल संसद के पास ही अभियोग चला कर है। राष्ट्रपति यह नियुक्ति केन्द्र सरकार की सिफारिश के आधार पर करते हैं और सरकार किसी भी वरिष्ठ सचिव स्तर के उच्चाधिकारी की नियुक्ति की अनुशंसा कर सकती थी। इसके लिए कोई प्राधिकृत नियमावली नहीं थी। अतः आजादी के बाद से ही ऊंचे पद पर आसीन अधिकारी को इस पद पर बैठाने की परंपरा डाली गई। पहले मुख्य चुनाव आय़ुक्त ऐसे जरूर थे जिन्हें न्यायिक पदों पर रहने का भी अनुभव था। चूंकि चुनाव आयोग सरकार का हिस्सा नहीं है अतः सर्वोच्च न्यायालय ने इस पद पर नियुक्ति करने के लिए एक उच्च चयन समिति का गठन करने का फैसला किया। इस चयन समिति में प्रधानमन्त्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता व मुख्य न्यायाधीश को सदस्य बनाया गया। विधेयक में मुख्य न्यायाधीश के स्थान पर किसी केन्द्रीय मन्त्री को सदस्य बनाने का प्रावधान था। इसे लेकर विपक्ष ने हो-हल्ला भी किया। मगर ऐसा लगता है कि केन्द्र सरकार ने इसे आगे टाल कर किसी नये विवाद को भी टालने का प्रयास किया है और संसद के विशेष सत्र में महिला आरक्षण विधेयक लाकर उल्टे विपक्ष को ही उलझा दिया है। यह विधेयक पारित करना विपक्ष की भी राजनैतिक मजबूरी होगी क्योंकि चुनावी राजनीति में वह इसका विरोध करके खलनायक नहीं बन सकता।

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