उत्तरकाशी के सिलकयारा गांव में ऑल वैदर रोड्स परियोजना के तहत निर्माणाधीन सुरंग में फंसे 41 मजदूरों को बचाने के लिए जिन्दगी की जंग जारी है। 9 दिन बीत जाने के बाद भी सुरंग तक पाइप डालने के काम में सफलता नहीं मिल पाई है। पहाड़ की सख्त चट्टानें बाधा बनी हुई हैं। अब सभी अन्य विकल्प आजमाए जा रहे हैं। एक के बाद एक मशीनें नाकाम हो रही हैं। इसी बीच सुरंग में फंसे मजदूरों के परिजनों का धैर्य जवाब देने लगा है। हालांकि फंसे मजदूरों को 6 इंच पाइप के जरिए खाना, पानी, ऑक्सीजन और दवाएं पहुंचाई जा रही हैं लेकिन उन सभी का एक ही सवाल है कि हमें बाहर कब निकाला जाएगा। बचाव अभियान के दौरान जब भी चट्टान चटकने की आवाज गूंजती है तो दहशत का माहौल कायम हो जाता है। सुरंग में फंसे मजदूरों के परिजन काफी निराश नजर आ रहे हैं। अब उनका मनोबल टूटता नजर आ रहा है। इजाजत मिलने पर पाइप के जरिए उनसे बात भी की जाती है। यद्यपि सभी मजदूर सुरक्षित बताए जा रहे हैं लेकिन तमाम आशंकाओं से घिरे परिजन मायूस हैं। अब पहाड़ के ऊपर से ड्रिलिंग की जा रही है।
केन्द्रीय पथ परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने रेस्क्यू ऑपरेशन का जायजा लिया। उन्होंने भी अगले दो से ढाई दिनों में फंसे मजदूरों तक पहुंचने की उम्मीद जताई है। सभी एजेंसियां बचाव अभियान में जुटी हुई हैं लेकिन उनके सामने इस हिमालयी भूभाग की जटिलताएं बाधा बनी हुई हैं। ड्रिलिंग करना एक त्वरित प्रक्रिया है लेकिन पाइप डालना अपने आप में चुनौतीपूर्ण कार्य है। अब एक साथ कई विकल्पों पर काम किया जा रहा है। सबसे बड़ी चुनौती फंसे मजदूरों का मनोबल बनाए रखना भी है। फंसे मजदूरों के लिए मल्टी विटामिन और एंटी डिपरेशन दवाएं तथा सूखे मेवे भी भेजे जा रहे हैं। सुरंग हादसे ने एक बार फिर पर्वतीय क्षेत्रों में विकास कार्यों के काले पहलू को उजागर कर दिया है। विकास परिजनाओं के चलते कुछ ही समय की बरसात से पहाड़ों के भरभरा कर गिरने और भूस्खलन की बढ़ती घटनाएं काला पहलू है। दूसरी तरफ सड़कों और पनबिजली परियोजनाओं के जरिए उत्तराखंड जैसे राज्यों के पिछड़े क्षेत्रों के आर्थिक विकास को संभव बनाने का शानदार और उम्मीदों से भरा पहलू भी है। उत्तराखंड ही नहीं बल्कि हिमाचल और अन्य पहाड़ी राज्यों में बीते वर्षों में सड़क निर्माण या पनबिजली परियोजना से जुड़ी सुरंगों के धंसने के कई हादसे हो चुके हैं।
2013 की केदारनाथ त्रास्दी की भयावहता हम सबको याद है। तबाही के मंजर को हमने प्राकृतिक आपदा का नाम दिया लेकिन प्रकृति के मूल स्वरूप से छेड़छाड़ करने की मानवीय प्रवृति ही ऐसे हादसों को न्यौता देती है। केदारनाथ त्रास्दी के समय लोगों की यह भी धारणा रही कि भगवान रूद्र उत्तराखंड से नाराज हैं। सुरंग हादसे के बाद भी स्थानीय लोगों की यह धारणा है कि यह हादसा सुरंग के पास मंदिर को तोड़े जाने की वजह से हुआ है। मंदिर तोड़ने से बौखनाग देवता नाराज हैं जिन्हें इस इलाके का रक्षक माना जाता है। विकास परियोजनाओं और प्रकृति के बीच संतुलन कायम करने की जरूरत है। पहाड़ी परिवेश को बचाते हुए देखना होगा कि विकास के गुण और दोष क्या हैं। यह गिरकर संभलने का वक्त है। यह सबका सीखने का भी समय है। विकास का फायदा तभी है जब इनसे हादसे न हों। यदि पहाड़ ही नहीं बचे तो विकास का कोई मतलब नहीं रह जाता।
जान जोखिम में डालकर निर्माण कार्यों में जुटे श्रमिकों की सुरक्षा भी हर मोर्चे पर सुनिश्चित करनी होगी। ऐसा तभी संभव होगा जब तमाम एहतियाती कदम भी उठा लिए जाएं। सवाल यही है कि आखिर निर्माण प्रक्रिया में गुणवत्ता प्रबंधन की ‘शून्य दोष’ अवधारणा सिर्फ किताबों तक ही सीमित क्यों रहे? यह सही है कि आपदा कभी कहकर नहीं आती और न ही ऐसे हादसों का पुर्वानुमान संभव है लेकिन इस हादसे में तो आपदा प्रबंधन में जुटे अधिकारियों ने भी माना है कि यदि बेहतर सुरक्षा उपाय और अलार्म सिस्टम होता तो मजदूर इस तरह से सुरंग में नहीं फंसते। अक्सर हादसे होने के बाद ही तकनीकी खामियां उजागर होती हैं, पहले इनकी तरफ ध्यान नहीं जाता। बाद में लकीर पीटने का काम जरूर होता है। ऐसे हादसों की वजह संबंधित एजेंसी का कमजोर तकनीकी पक्ष तो ही है भू-वैज्ञानिकों की चेतावनियों की अनदेखी भी इसके लिए जिम्मेदार है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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