इस तरफ कोई राजनैतिक दल बात नहीं करना चाहता क्योंकि इसमें वोट बैंक की राजनीति चौपट होती दिखाई पड़ती है। जब अन्तर्जातीय विवाहों के बारे में हम संवेदनहीन हैं तो अंतर्धार्मिक विवाहों के बारे में सोचना भी आसमान से तारे तोड़ने के बराबर है। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस्लाम धर्म की कट्टर मुल्ला- मौलवी ब्रिगेड इस कार्य में एेतिहासिक काल से ही हिन्दू धर्म के अनुयायियों के प्रति असहिष्णु रही है और एेसे विवाहों को केवल इस्लामी रस्मोरिवाज के अनुसार कराये जाने पर ही वैध मानती है अर्थात धर्म परिवर्तन उनका लक्ष्य रहा है जबकि हिन्दू समाज में इसके विपरीत अवधारणा रही है। इसका कारण भी हिन्दू धर्म का उदात्त व सर्वग्राही दर्शन है जिसमें मानवता वाद को केन्द्र में रखते हुए 'अहम् ब्रहास्मि' का अभीष्ट है। यह तथ्य हमें स्वीकार करना चाहिए कि अकबर के बाद जहांगीर के शासन तक में अन्तरधार्मिक हिन्दू-मुस्लिम विवाहों का प्रचलन हो चुका था जिसे समाज में मान्यता भी मिल चुकी थी, मगर शाहजहां के शासनकाल में मुल्ला-मौलवियों और काजियों की तूती बोलने लगी तो उन्होंने शाहजहां से कह कर हिन्दू-मुस्लिम विवाहों पर प्रतिबन्ध लगाने का फरमान जारी करा दिया। इसके बाद औरंगजेब ने तो शरीया के मुताबिक अपनी सल्तनत चलाने की तरकीबें निकालनी शुरू कीं जिसमें उसे सफलता नहीं मिल सकी मगर इसके बाद 1947 के आते-आते भारत मजहब के नाम पर ही बंट गया और पाकिस्तान तक बन गया। लेकिन आज का हिन्दोस्तान भी जिस तरह से हिन्दू-मुस्लिम खेमों में बंट रहा है वह भारतीय संस्कृति की अवमानना का ही प्रतिफल कहा जा सकता है।