यहां तक कि मुस्लिम सुल्तानों व मुगल शासकों ने भी भारत की राजधर्म की परिभाषा को अंगीकार किया और उसी के अनुरूप शासन चलाने की कोशिश भी की। यदि औरंगजेब को छोड़ दिया जाये तो किसी भी मुगल बादशाह ने इन रवायतों के साथ छेड़छाड़ करने की कोशिश नहीं की। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आठ सौ वर्षों तक मुस्लिम शासन रहने के बावजूद 1947 तक पूरे अंखड भारत में मुस्लिमों की जनसंख्या मात्र 25 प्रतिशत थी। इसका जवाब भी हमें भारत का मध्यकालीन इतिहास ही देता है और बताता है कि किसी भी मुस्लिम शासक ने धर्म परिवर्तन को अपनी नीति का अंग नहीं बनाया। मगर ऐसा भी नहीं है कि उस काल में धर्म परिवर्तन नहीं हुआ, बेशक धर्म परिवर्तन किया गया मगर इसके कारण स्थानीय स्तर के हुक्मरानों की तर्ज में ढूंढे जा सकते हैं मगर इसके बावजूद भारत की इन्द्रधनुषी समावेशी संस्कृति में यह ताकत रही कि इसने विभिन्न मजहबों की रूढि़यों व परंपराओं को अपनी तासीर के मुताबिक ढाला और भारतीयता का जामा पहनाया जिसकी सबसे बड़ी नजीर हमें संयुक्त पंजाब की संस्कृति में ही मिलती है। सिख पंथ का उदय इसका सबसे बड़ा प्रमाण है जिसने सिर्फ मानवता वाद का उपदेश ही दिया। यह भारत की ही तासीर थी कि यहां मुस्लिम पीर-फकीरों ने भी हिन्दू दर्शन की कई मान्यताओं को समाहित किया और भारत की मिट्टी का एहतराम करते हुए दक्षिण भारत के लोगों के लिए दक्खिनी हिन्दी तक को विकसित किया। ऐसा करने वाले पहले सूफी सन्त औरंगाबाद के होली पीर ही थे जो बाद में गुजरात चले गये थे। जिस प्रकार पंजाब में सूफी सन्त व औलियाओं की लम्बी परंपरा है उसी प्रकार महाराष्ट्र राज्य में भी है। पाकिस्तान के पंजाब में आज भी ब्याह-शादियों में केसरिया चुन्नी ही दुल्हिन का शृंगार होती है और इस अवसर पर गाये जाने वाले लोकगीत भी इसी भाव के होते हैं। अतः हमें सबसे पहले यह सोचना चाहिए कि आजाद हिन्दोस्तान में हिन्दू-मुस्लिम फसादों की कितनी जगह है जबकि समूचे भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था इन दोनों सम्प्रदायों के कन्धों पर ही टिकी हुई है। कट्टरपंथी सोच के लोग दोनों तरफ हैं तो क्या हम इन्हें अपना आका बनने दे सकते हैं जबकि आका तो हर भारतीय है।