सर्वप्रथम यह समझा जाना चाहिए कि भारत गांधी का देश है और उन गांधी का देश है जो कहते थे कि 'मैं अपने विरोधी के विचार उसे अपने से ऊंचे आसन पर बैठा कर सुनना पसन्द करूंगा'। हमें आजादी के बाद जो लोकमूलक प्रजातन्त्र मिला है वह महात्मा गांधी के अंग्रेजों के खिलाफ चलाये गये आन्दोलन के दौरान हुए 'समुद्र मंथन'से निकला 'अमृत' ही है। अतः भारत की हर पीढ़ी का कर्त्तव्य बनता है कि वह इस अमृत को थोड़ा भी दूषित न होने दे। महात्मा गांधी ने हमें सिखाया कि अपने विरोधी का विरोध अपने विचारों से करो क्योंकि प्रजातन्त्र केवल विचार युद्ध ही होता है जिसमें हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं होता है। यह बेसबब नहीं है कि भारत के संविधान में केवल अहिंसक माध्यमों से ही सत्ता पर आसीन होना और उसका परिवर्तन करना ही वैध बनाया गया है। हिंसक विचारों के प्रचार- प्रसार पर यह संविधान प्रतिबन्ध लगाता है और यहां तक लगाता है कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर भी यह शर्त लागू होती है। परन्तु क्या कयामत है कि कर्नाटक का एक मन्त्री डा. सी.एन. अश्वथ नारायण सार्वजनिक रूप से अपनी पार्टी भाजपा की विरोधी कांग्रेस पार्टी के नेता व पूर्व मुख्यमन्त्री श्री सिद्धारमैया को मैसूर के शासक रहे टीपू सुल्तान की तरह दुनिया से ही मिटाने की वकालत करते हैं।