मैं यह सोचकर आज भी सिहर उठता हूं कि मेरे पिता अश्विनी कुमार पहले आतंकी दानवों की गोलियों से छलनी पड़दादा लाला जी का शरीर अपनी गोद में रखकर लाए फिर आतंकवादियों की गोलियों से छलनी दादा रमेश चंद्र जी का शरीर अपनी गोद में रखकर आवास पर लाए। घर के वटवृक्ष गिर गए थे परन्तु परिवार के दायित्वों ने उन्हें और ज्यादा साहसी बना दिया। उन्होंने जिस भूमिका का निर्वाह किया, उसी के उत्कर्ष को छुआ। क्रिकेट खेली तो उसमें लोकप्रियता को छुआ। कलम सम्भाली तो अपनी लेखनी से पंजाब केसरी को शीर्ष तक पहुंचाया। आतंकवाद के काले दिनों में शहादतों के बाद जब परिवार जालंधर छोड़ कर पलायन को तैयार था तो यह पिता का ही साहस था कि उन्होंने न केवल परिवार के पलायन को रोका, बल्कि आतंकवाद के खिलाफ अपनी लेखनी से जनमत तैयार कर दिया। दिल्ली पंजाब केसरी का प्रकाशन एक जनवरी 1983 से शुरू हुआ तो धमकियों का सिलसिला बंद नहीं हुआ। चारों तरफ सुरक्षाकर्मियों का घेरा एवं किसी भी क्षण प्राणों से हाथ धोने की दहशत के बीच उनकी कलम कभी नहीं रुकी। हालात यह थे कि मुझे भी सुरक्षाकर्मियों के साथ ही स्कूल भेजा जाता था और लाया जाता था। भयावह परिस्थितियों में भी वे कभी टूटन का शिकार नहीं हुए। कैंसर से जूझते हुए भी अपनी आत्मकथा लिखते रहे। उन्होंने जो कुछ मुझे समझाया उसका भाव यही था। लेखनी सत्य के मार्ग पर चले, लेखनी कभी नहीं रुके, कभी नहीं झुके, यह राष्ट्र की अस्मिता की संवाहक है, यह राष्ट्र को समर्पित हो।