आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इसी विशिष्टता के चलते लगातार आठ वर्ष तक विपक्ष में रह कर अपने वजूद के लिए लड़ने वाली कांग्रेस ने 2004 में श्रीमती सोनिया गांधी के नेतृत्व में पुनः सत्ता के शिखर को चूमा और दस वर्ष 2014 तक राज किया। परन्तु इसके बाद परिस्थितियां पूरी तरह बदलीं और पहली बार कांग्रेस लोकसभा में केवल 44 स्थान ही प्राप्त कर पाई। यह इतना बड़ा आघात था कि इस पार्टी की जमीन बुरी तरह खिसक गई मगर इसके बावजूद कांग्रेस के निशान भारत के हर राज्य में 'नेहरू-गांधी' परिवार की यादगार में नुमांया रहे और यह पार्टी किसी न किसी वजूद में (राष्ट्रवादी कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, वाईएसआर कांग्रेस आदि) भेष व झंडा बदल कर जीवित रही। अतः यह लिखना कोई गलत तर्क नहीं होगा कि अखिल भारतीय कांग्रेस के स्वरूप का क्षेत्रीय दलों में इस हद तक बंटवारा हुआ कि इसका राष्ट्रीय स्वरूप सिकुड़ गया। बेशक इसे कांग्रेस पार्टी के सांगठनिक तन्त्र के जड़ से 'उधड़' जाने का समरूप रखा जा सकता है जो स्व. इन्दिरा गांधी की प्रचंड केन्द्रीकृत सत्ता के दौरान घटा था।