हमने अपनी आजादी की लड़ाई जिस तिरंगे की छत्रछाया में लड़ी उसे फहराने को लेकर आजादी के 70 साल बाद यदि विवाद उठता है तो यह सोचने पर विवश होना ही पड़ेगा कि हमारी राष्ट्रीय सोच भी क्या राजनीतिक दलगत दायरे में कैद होती जा रही है! तिरंगा किसी पार्टी का नहीं बल्कि राष्ट्र की निशानी है जिसके साये में भारत का वह रंग-बिरंगा लोकतन्त्र फला-फूला है जिसमें विचार विविधता को पूरा सम्मान प्राप्त है। बेशक राजनीतिक दलों की राजनीति को पूरी स्वतन्त्रता संवैधानिक दायरे में इसके तीनों रंग प्रदान करते हैं मगर यह एहतियात भी करते हैं कि उनका कोई भी कार्य राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध न हो। भारत के राष्ट्रीय हितों और मानवीय हितों में कोई विरोधाभास नहीं रहा है क्योंकि हमारा संविधान मानवीय अधिकारों का सबसे जीता-जागता दस्तावेज है। हमारे पुरखों ने ‘सत्यमेव जयते’ को अकारण ही राष्ट्र धर्म के रूप में निरूपित नहीं किया, इसके पीछे सदियों से चली आ रही सामाजिक व आर्थिक असमानता को समाप्त करने का उद्घोष था जो विभिन्न विसंगतियों को प्रतिष्ठा देकर मानवीयता को रौंद रही थी। यह बेवजह नहीं था कि ब्रिटिश शासन के दौरान आजादी के दीवानों में तिरंगा फहराने का जुनून इस हद तक था कि उन्हें जेल की यातनाओं की परवाह तक नहीं थी मगर वह अंग्रेजों का शासन था।
स्वतन्त्र भारत में हम किस तरह किसी भी व्यक्ति को आजादी का जश्न मनाने से रोक सकते हैं और किसी भी राज्य की सरकार किस तरह किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति द्वारा किये जाने वाले ध्वजारोहण पर आपत्ति कर सकती है मगर केरल की माक्र्सवादी पार्टी की सरकार ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख श्री मोहन भागवत द्वारा पलक्कड के एक विद्यालय में 15 अगस्त पर झंडा फहराने का विरोध किया और इस जिले के जिलाधीश ने उन्हें ऐसा न करने के लिए कहा। इसकी परवाह श्री भागवत ने नहीं की और नियत कार्यक्रम के अनुसार तिरंगा फहराया। ऐसा करके उन्होंने किसी कानून का उल्लंघन नहीं किया क्योंकि स्वतन्त्र देश भारत के किसी भी स्थान पर 15 अगस्त को तिरंगा फहराने से तब तक कोई भी सरकार किसी को नहीं रोक सकती जब तक कि सार्वजनिक व्यवस्था (पब्लिक आर्डर) के खतरे में पड़ जाने का डर न हो। श्री भागवत के केरल की धरती पर जाने से ऐसा कुछ भी होने का अन्देशा नहीं था जिसका प्रमाण उनके कार्यक्रम के सम्पन्न हो जाने से भी मिला मगर इस मामले से यह साबित हो गया कि केरल में माक्र्सवादी अजीब असुरक्षा की भावना से भर गये हैं।
यह भी साबित हो रहा है कि उनका अपने राजनीतिक दर्शन से विश्वास उठता जा रहा है क्योंकि संघ की विचारधारा उनकी विचारधारा के ठीक विपरीत है और वे इसका उत्तर वैचारिक स्तर पर देने में असहजता महसूस कर रहे हैं वरना राज्य की माक्र्सवादी सरकार श्री भागवत के ध्वजारोहण कार्यक्रम को इतना तूल न देती। शायद माक्र्सवादी भूल गये कि उन्हीं की पार्टी के सिरमौर रहे नेता स्व. हर किशन सिंह सुरजीत ने मात्र 16 वर्ष की आयु में ही इसी तिरंगे को फहराने को लेकर अपना भविष्य दांव पर लगा दिया था। बेशक तब अंग्रेजों का शासन था मगर तिरंगे के प्रति देशवासियों की भावना वही थी जो आज है। श्री सुरजीत ने पंजाब के होशियारपुर के जिला न्यायालय परिसर में तिरंगा फहरा कर अंग्रेज सरकार को चुनौती देने की ठान ली थी। कड़े पहरे के बावजूद उन्होंने पुलिस की मौजूदगी मे तिरंगा फहराया और गिरफ्तारी दी। अत: केरल की सरकार को कोई भी कदम उठाने से पहले सौ बार सोचना चाहिए था कि ऐसा करके वह अपनी कमजोरी का ही परिचय देगी मगर उल्टे विवाद पैदा करने की कोशिश की गई कि स्वतन्त्रता आन्दोलन में संघ की क्या भूमिका रही और जवाब में तर्क दिया गया कि उल्टे कम्युनिस्टों की भूमिका क्या रही। यह भी कहा गया कि श्री भागवत किसी अन्य सार्वजनिक स्थान पर झंडा फहरा देते।
केरल के विद्यालय में तो किसी चुने हुए प्रतिनिधि या सरकारी व्यक्ति को ही ध्वज फहराने का अधिकार है! एक तर्क को सही साबित करने के लिए कई कुतर्कों का जाल खड़ा करके उसे सही सिद्ध नहीं किया जा सकता। स्कूल का प्रबन्धन जिसे चाहे उसे ध्वजारोहण के लिए आमंत्रित कर सकता है। श्री भागवत विद्यालय के निमंत्रण पर ही पलक्कड गये थे। फिर विवाद उठने का सवाल ही कहां पैदा होता है। जाहिर है कि राज्य में राजनीतिक हिंसा का जो दौर चल रहा है उस पर नियंत्रण रखने में प्रदेश सरकार असमर्थ हो रही है और परोक्ष रूप से उसके लिए संघ को जिम्मेदार ठहराना चाहती है मगर ऐसा नहीं है क्योंकि दोनों ही तरफ के लोगों की हत्याएं पिछले दिनों हुई हैं लेकिन इसका स्वतंत्रता दिवस के पर्व से क्या लेना-देना हो सकता है। उल्टा होना तो यह चाहिए था कि स्वयं मुख्यमंत्री पिनयारी विजयन श्री भागवत के कार्यक्रम की सफलता की कामना करते और उन्हें स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं देते और केरल में प्रेम व भाईचारा बढ़ाने की कामना करते। लोकतंत्र हमें यही तो सिखाता है कि अपने राजनीतिक या वैचारिक प्रतिद्वन्द्वी को भी समुचित सम्मान दो। यह सिद्घान्त दोनों ही पक्षों पर समान रूप से लागू होता है। इसी प्रकार श्री विजयन या उनकी पार्टी के कोई दूसरे नेता जब किसी भाजपा शासित राज्य में जायें तो उनके कार्यक्रमों को समुचित सम्मान मिले।