डीएमके के एक सांसद ने हाल ही में उत्तर-दक्षिण भारत के विभाजन संबंधी अपनी ही टिप्पणी को वापिस ले लिया। उस सांसद को जल्दी ही यह स्मरण करा दिया गया था कि अपने इस देश में यह सोच अव्यावहारिक भी है और बेतुकी भी। उस सांसद को शायद न तो धर्म के बारे में अता-पता था, न ही राजनीति के बारे में और न ही अपने यहां की संस्कृति का पता था। सांंसद को अपने देश यानी भारत के प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल के बारे में भी पता नहीं था। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी दक्षिण भारतीय थे, मगर स्वतंत्र भारत के प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल थे। उन्होंने हिन्दू धर्म व हिन्दू मान्यताओं एवं आध्यात्मिक विचारधाराओं के बारे में जितना लिखा था, उतना शायद उत्तर भारत के समकालीन विद्वानों ने भी नहीं लिखा था।
इसी देश में उस तामिल भाषी राजनीतिज्ञ ने अगस्त 1959 में एक राजनैतिक दल का गठन किया था। उस राजनैतिक दल यानि कि स्वतंत्र पार्टी में केएम मुंशी, एनजी रंगा, मीनू मसानी, राजमाता गायत्री देवी, पीलू मोदी सरीखे नेता शामिल थे। इस दल ने पंडित नेहरू की कथित समाजवादी नीति का तार्किक आधार पर डटकर विरोध किया था और उन दिनों आर्थिक-उदारीकरण का पहली बार शंखनाद किया गया था।
इसका पहला अधिवेशन पहली अगस्त, 1959 को बम्बई (वर्तमान मुम्बई) में हुआ था तब इस सम्मेलन में केएम मुंशी, मीनू मसानी, जयपुर के राजघराने के अतिरिक्त पटियाला के तत्कालीन महाराज यादवेंद्र सिंह, सरदार पटेल के बेटे डाह्याभाई पटेल, उद्योगपति होमी मोदी, अर्थशास्त्री एचएम पटेल, लोबो प्रभु व नारायण दांडेकर जैसे नेता शामिल थे। इस पार्टी की लोकप्रियता इतनी बढ़ी था कि 1967 के चुनावों में इसे लोकसभा चुनावों में 44 स्थान मिले थे और यह संख्या तत्कालीन भारतीय जनसंघ व अन्य दलों से कहीं अधिक थी। कांग्रेस के बाद यही सबसे बड़ी पार्टी थी।
एक दक्षिण भारतीय द्वारा स्थापित इस पार्टी को उत्तर भारत में व्यापक समर्थन मिला था और इसी दक्षिण भारत के एक विशुद्ध तमिल भाषी राजनेता के. कामराज ने कांग्रेस पार्टी के सर्वाधिक कद्दावर नेता के रूप में इस देश की राजनैतिक धारा ही बदल डाली थी। देश के अनेक केंद्रीय नेताओं को सत्ता के गलियारे से बाहर करने में भी वह सफल रहे थे। उनकी बनाई गई कामराज-योजना ने नेहरू कालीन राजनीति को वस्तुत: जीवनदान दिया था। पुराने इतिहास में भी उत्तर-दक्षिण विभाजन कभी भी प्रासंगिक नहीं रहा।
12 अप्रैल 1954 को चक्रवर्ती राजगोपालाचारी जी के मद्रास राज्य के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद कामराज ने मुख्यमंत्री पद की कमान संभाली। 13 अप्रैल 1954 से 2 अक्टूबर 1963 तक उन्होंने मद्रास राज्य के मुख्यमंत्री के रूप कार्य किया। सीएम बनने के बाद उन्हें संसद की सदस्यता से इस्तीफा देना पड़ा। 1964 में नेहरू की मृत्यु के समय के. कामराज भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष थे। नेहरू की मृत्यु के बाद अशांत समय में पार्टी को सफलतापूर्वक संचालित किया। कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में, उन्होंने खुद अगला प्रधानमंत्री बनने से इनकार कर दिया और दो प्रधानमंत्रियों, वर्ष 1964 में लाल बहादुर शास्त्री और 1966 में नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी को सत्ता में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस भूमिका के लिए उन्हें 1960 के दशक के दौरान ‘किंगमेकर’ के रूप में व्यापक रूप से सराहा गया।
1964 से 67 तक उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में नेतृत्व किया। 1969 में उन्होंने नागरकोयल संसदीय सीट से कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में उपचुनाव लड़ा और संसद पहुंचने में कामयाब रहे। 1969 के अंत में कुछ कांग्रेसी नेताओं के इंदिरा गांधी से मतभेद हो गए। मोरारजी देसाई, कुमारस्वामी कामराज, एस. निजलिगंप्पा तथा अन्य नेताओं ने कांग्रेस को अलविदा कह दिया। असंतुष्ट धड़े ने कामराज के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (संगठन) के नाम से राजनीतिक दल का गठन किया।
उन्हे वर्ष 1976 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया तथा उनकी स्मृति में भारत सरकार द्वारा डाक टिकट जारी किया गया। अब ऐसे प्रदेश का कोई सांसद गैर जिम्मेदाराना बयान सदन के भीतर देने लगे तो उसकी कड़ी आलोचना तो होगी ही। इससे पहले भी एक दक्षिण भारतीय कांग्रेसी नेता ने उत्तर भारत को ‘काऊ-बैल्ट’ नाम दे डाला था।