आज जिस बहुचर्चित मुद्दे ने कई राज्यों के आम नागरिकों का ध्यान खींचा है, वह है ‘मुफ्त की रेवड़ी की राजनीति’, जो कुछ मायनों में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से शुरू हुई और विधानसभा चुनावों के माध्यम से कई राज्यों में अपना रास्ता बना चुकी है। एक तरफ मुफ्त सामग्री देने की राजनीति की आलोचना की जा रही है, तो वहीं दूसरी तरफ इसकी वकालत भी की जा रही है। इसकी वकालत करने वाले इसे कल्याणकारी राज्य का एक महत्वपूर्ण पहलू बताते हैं, तो वहीं इसकी आलोचना करने वाले इसे खराब अर्थव्यवस्था के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं।
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हालांकि, यह मुद्दा भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय की एक जनहित याचिका के माध्यम से शीर्ष अदालत तक पहुंच गया है, जो राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं को मुफ्त में देने या वादा करने की घोषणा के खिलाफ है। आम आदमी पार्टी जिसने सत्ता में आने के बाद राजधानी में मुफ्त बिजली और पानी देना शुरू किया, उसे इस परपंरा का शुरुआती बिंदु कहा जा सकता है। हालांकि, पहले भी कई सरकारें बिजली के बिल, पानी के बिल और कृषि ऋण माफ करती आई है, लेकिन आम आदमी पार्टी मुफ्तखोरी को ‘जनता में निवेश’ का नाम देती है।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के यूरोपीय अध्ययन केंद्र के सहायक प्रोफेसर डॉ. शक्ति प्रसाद श्रीचंदन का कहना है कि भारत जैसे देश के लिए, जहां बहुत से लोग अभी भी गरीबी रेखा से नीचे हैं, कभी-कभी मुफ्त की आवश्यकता होती है। लेकिन यह एक स्थायी तरीके से और अर्थव्यवस्था पर दबाव डाले बिना होना चाहिए।
वही, उन्होंने बताया, ‘लेकिन आज हम देखते हैं कि वोट बटोरने के लिए मुफ्त को हथियार बनाकर सत्ता हासिल की जा रही है। जल्दी या बाद में, यह अर्थव्यवस्था को प्रभावित करेगा और अन्य समस्याएं पैदा करेगा। मुफ्तखोरी की राजनीति के गंभीर परिणाम हो सकते हैं, जैसा कि हमने हाल ही में श्रीलंका के मामले में देखा है। अगर इस मुफ्तखोरी की राजनीति पैंतरे को नियंत्रित नहीं किया गया, तो आशंका है कि भारत का भी ऐसा ही हश्र हो सकता है।’
मुफ्तखोरी कल्चर की हो रही आलोचना
दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने पिछले हफ्ते एक प्रेस वार्ता में कहा था कि भाजपा जनता के लिए कल्याणकारी योजनाओं को ‘मुफ्त की रेवड़ी’ कहती है, लेकिन हम इसे आम लोगों पर निवेश कहते हैं। उन्होंने कहा कि देश में शासन के दो मॉडल अपनाए जा रहे हैं। एक है शासन का ‘दोस्तवाद’ मॉडल, जहां सत्ता में बैठे लोग अपने दोस्तों की मदद करते हैं, सुपर अमीर दोस्तों के करोड़ों टैक्स माफ करते हैं और इसे विकास कहते हैं। वहीं दूसरा मॉडल स्कूल खोलने का, जहां बच्चों को मुफ्त शिक्षा, नागरिकों को मुफ्त बिजली, महिलाओं के लिए मुफ्त बस यात्रा और बुजुर्गो को पेंशन आदि पर ईमानदार से काम किया जाता है।
हालांकि, अर्थव्यवस्था पर बेवजह बोझ डालने के लिए मुफ्तखोरी कल्चर की आलोचना की जा रही है, जो अंतत: देश में मुद्रास्फीति को बढ़ावा देगी। दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर हिमांशु रॉय ने कहा कि अगर नागरिकों को कुछ मुफ्त देना उत्पादक है तो यह ठीक है, लेकिन मुफ्त के नाम पर ‘आप’ जो कर रही है वह अनुत्पादक है, जैसे महिलाओं को एक हजार रुपये देना, जो अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने वाला नहीं है, बल्कि महंगाई बढ़ाने वाला है। रॉय ने आईएएनएस से कहा, ‘जो कुछ भी उत्पादकता और रोजगार से जुड़ा हुआ है, वह स्वीकार्य है, लेकिन चुनाव जीतने के लिए करदाताओं के पैसे का एक छोटा सा हिस्सा जिसका उत्पादकता से कोई लेना-देना नहीं है, दुरुपयोग है।’
केंद्र की नीति के बारे में बात करते हुए, रॉय ने कहा कि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम को सड़कों के निर्माण के लिए उत्पादकता से जोड़ा गया है, जिससे रोजगार पैदा होगा और एक सड़क का निर्माण भी होगा। उन्होंने कहा कि एक हद तक मुफ्त शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल देना ठीक है, क्योंकि यह सार्वजनिक उपभोग के लिए है। जब कुछ भी मुफ्त में उपलब्ध होता तो जाहिर तौर पर उसका दुरुपयोग बढ़ जाता, यह एक सार्वजनिक प्रवृत्ति है। रॉय ने कहा कि इस संस्कृति का न केवल अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, बल्कि देश में उच्च मुद्रास्फीति पैदा होगी।