पिछले लेख के अनुसार लालाजी ने ज्ञानी जी के समक्ष अपनी बात को आगे बढ़ाया और कहा कि मुझे बवासीर हुई, फिर ‘सायाटिका पेन’ हुई, मेरा भार 45 किलो गिर गया। जब अंग्रेजों ने समझा कि अब लाला नहीं बचेगा तो मुझे दो साल बाद रिहा कर दिया। मुझसे चला भी नहीं जाता था, मेरा खून खत्म हो चुका था। ये तो भला हो डा. बाली का, जो कि मेरा दोस्त था, जो मुझे अपने घर ले गया और छह माह में मुझे अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने के लिए फिर से स्वस्थ कर तैयार कर दिया। जब मैं अंग्रेजों से नहीं डरा तो ज्ञानी तू या तेरी बीबी (इंदिरा) क्या चीज है। जा बता दे बीबी को मैं मरना पसन्द करूंगा, इस तरह झुक कर कायरों की तरह क्षमा याचना नहीं कर सकता।” ज्ञानी जी चुुपचाप कम्बल ओढ़े बाहर निकल गए और मेरी आंखों से खुशी और गर्व के आंसुओं की बरसात होने लगी। सचमुच मैंने एक शेर नहीं बब्बर शेर के घर जन्म लिया और मेरे अंदर इस बब्बर शेर का खून आज भी विद्यमान है।
उन्हीं दिनों श्री जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी की इमरजेंसी के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। इमरजेंसी खत्म होने के पश्चात जब श्री जयप्रकाश पंजाब के दौरे पर आए तो सबसे पहले जालंधर हमारे घर पर आए और पूज्य दादा लालाजी और पिताजी रमेश जी से दो घंटे उनके साथ भविष्य में भारत में लोकतंत्र की बहाली पर गहन मंथन किया।
इस घटना के कुछ अर्से बाद इंदिरा जी ने देश में इमरजेंसी खत्म कर दी और आम चुनाव की भी घोषणा कर दी। उधर जयप्रकाश के नेतृत्व में सभी विपक्षी दलों ने मिलकर जनता पार्टी की स्थापना की। पंजाब के सभी अकाली नेता लालाजी के साथ जेलों में रहे थे। स. प्रकाश सिंह बादल, श्री टोहरा, श्री लौंगोवाल और श्री बलवंत सिंह सभी इकट्ठे होकर हमारे घर जालन्धर आए, लालाजी को घेर लिया। सभी की इच्छा थी कि जनता पार्टी की टिकट पर लालाजी अपनी पुरानी परंपरागत सीट चंडीगढ़ से लोकसभा चुनाव लड़ें लेकिन लालाजी नहीं माने। चन्द्रशेखर जी उन दिनों जनता पार्टी के अध्यक्ष थे। उन्होंने फोन किए। अटल जी के फोन आए, बाबू जगजीवन राम, चौ. चरण सिंह और यहां तक कि मोरारजी देसाई ने लालाजी से कहा कि वे चुनाव लड़ें और केन्द्र में महत्वपूर्ण मंत्री पद संभालें।
मुझे याद है लालाजी ने मुझे कहा था, ‘बेटा ये सब लोग भानुमति के पिटारे की तरह इकट्ठे हुए हैं। एक-दो वर्षों में लड़ मरेंगे और यह पिटारा टूट जाएगा। मैं इसमें सहभागी नहीं बनना चाहता। वैसे भी अब मुझे राजनीति से नफरत हो चुकी है।’
जो लालाजी ने कहा था वही हुआ। मात्र दो वर्षों से भी कम समय में जनता पार्टी की मोरारजी सरकार गिरा दी गई और जनता पार्टी का पिटारा टुकड़े-टुकड़े जमीन पर आ गिरा।
1981 में लालाजी की हत्या कर दी गई थी। 1982 में राष्ट्रपति पद पर रहते हुए ज्ञानी जी ने पहले पिता श्री रमेश जी को बुलाया और लालाजी के निधन पर अफसोस व्यक्त किया। उन्होंने कहा कि लालाजी और मुझमें सियासी और पत्रकारिता की जंग चलती रही लेकिन हमारे व्यक्तिगत संबन्ध कभी नहीं बिगड़े। ज्ञानी जी ने आपातकाल के दौरान लालाजी पर ढहाये गये अत्याचार और इंदिरा गांधी का समर्थन करने के लिये डाले गये दबाव के लिए पिताजी से माफी मांगी। उन्होंने कहा कि लालाजी जैसे स्वाभिमानी व्यक्ति से इस तरह का व्यवहार किया ही नहीं जाना चाहिए था। उन्होंने फिर मुझे भी बुलाया और ज्ञानी जी ने वही बात दोहराई जो उन्होंने पिताजी से कही थी। जब तक ज्ञानी जी राष्ट्रपति रहे तब तक पिताश्री और मेरे उनके साथ सम्बन्ध काफी मधुर रहे।