पूरा देश चुनावी राजनीति में उलझा हुआ है। 21वीं सदी में देश को एक नए दौर में ले जाने वाले लोकसभा चुनावों के लिए प्रचार में तेजी आते ही उस भाषा के प्रयोग में भी तेजी आती जा रही है जिसके बारे में लोगों को पहले ही आशंका थी। चुनावों में साधारण जुमलेबाजी तो रोजमर्रा की बात होती है लेकिन जब उसमें अशिष्टता का बेहद अप्रिय सम्मिश्रण भी शुरू हो जाए तो चिन्ता स्वाभाविक है। इसका परिणाम क्या होगा और यह प्रवृत्ति किस हद तक जाएगी, इसके बारे में सोचने की फुर्सत कहां है? राजधानी का आम आदमी नर्सरी दाखिलों के संग्राम के अलावा निजी स्कूलों द्वारा बढ़ाई गई फीस से जूझ रहा है। उसकी चिन्ता यही है कि आखिर वह अपने बच्चों को राजधानी में पढ़ाए तो कैसे पढ़ाए।
नर्सरी दाखिले पर संग्राम भी हर साल होता है और प्राइवेट स्कूलों की मनमानी के चलते फीस लूट का तमाशा भी हर साल होता है फिर भी आम आदमी की समस्याओं का समाधान क्यों नहीं किया जाता। टीचर्स की सेलरी बढ़ाने के लिए हाईकोर्ट से जैसे ही कुछ राहत मिली, प्राइवेट स्कूलों ने अभिभावकों पर फीस का बढ़ा बोझ लादना शुरू कर दिया। तीन-चार साल के एरियर्स भी लिए जाने लगे। फीस में भी अच्छी-खासी वृद्धि कर दी।
शिक्षा विभाग का कहना है कि हाईकोर्ट के ऑर्डर को भी गलत तरीके से लिया जा रहा है। वे स्कूल भी धड़ल्ले से फीस बढ़ा रहे हैं जिनका फीस हाइक का प्रपोजल शिक्षा निदेशालय ने नामंजूर कर दिया है। शिक्षा निदेशालय ने एक सर्कुलर जारी कर कहा है कि स्कूल बिना अनुमति के फीस नहीं बढ़ा सकते। हाईकोर्ट ने राहत उन्हीं स्कूलों को दी थी जिन्हें फीस बढ़ाने की अनुमति मिली हुई है। सैकड़ों स्कूल सरकारी जमीनों पर हैं और अनेक स्कूलों ने अप्लाई ही नहीं किया था, उन पर यह आदेश लागू ही नहीं होता। अनेक स्कूलों ने अप्लाई किया था लेकिन उन्हें फीस बढ़ाने की अनुमति नहीं मिली।
मामला गर्माया तो दिल्ली सरकार ने हाईकोर्ट में अपील की तो हाईकोर्ट ने सरकारी जमीन पर बने निजी स्कूलों को फीस बढ़ाने पर रोक लगा दी और अपने एकल पीठ के फैसले पर रोक लगा दी जिसके तहत निजी स्कूलों को 7वें वेतन आयोग की सिफारिशों के तहत शिक्षकों व कर्मचारियों को वेतन और भत्ता देने के लिए फीस बढ़ाने की अनुमति दे दी थी।
इसमें कोई संदेह नहीं कि दिल्ली की आप सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में अच्छा काम किया है। सरकारी स्कूलों की दशा में काफी सुधार किया है और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की ओर भी ध्यान दिया गया है लेकिन उसके सामने निजी स्कूल माफिया से निपटने की चुनौती काफी बड़ी है। हैरानी की बात तो यह है कि जिन स्कूलों के पास सरप्लस फण्ड है वे भी फीस बढ़ा रहे हैं। राजधानी के नामी स्कूलों के पास 10 करोड़ से लेकर 40 करोड़ का फण्ड पड़ा हुआ है, वे भी फीस की लूट में संलिप्त हैं। उन्होंने तो अभिभावकों को फीस चुकाने के लिए ईएमआई की पेशकश भी कर दी थी। निजी भूमि पर बने स्कूल फीस बढ़ा सकते हैं मगर शर्त यह है कि वह स्कूल में कुछ बनाने, खरीदने के लिए फीस नहीं बढ़ा सकते।
बाकी बार-बार आने वाले खर्च के लिए स्कूल फीस बढ़ा सकता है। इसके लिए उन्हें अपने खर्च का ढांचा बनाकर शिक्षा निदेशालय को देना होगा। दिल्ली सरकार ने पहले भी स्कूलों में बढ़ी हुई फीस अभिभावकों को दिलवाई थी लेकिन व्यावहारिक तौर पर यह कितना हुआ, इस सम्बन्ध में कोई पारदर्शिता नहीं। क्या निजी स्कूल अपने शिक्षकों को 7वें वेतन आयोग के अनुसार वेतन देते हैं? इसके बारे में सच सभी जानते हैं लेकिन बोले कौन। बोलेेंगे तो नौकरी से हाथ धोना ही पड़ेगा। अभिभावकों ने प्रदर्शन शुरू किए तो स्कूल वालों ने उन्हें अन्दर तक घुसने नहीं दिया। कुछ स्कूलों ने तो बाहर बोर्ड लगवा दिए जिन पर लिखा है-‘‘यह स्कूल सरकारी भूमि पर नहीं बना है।’’
तीसरी कक्षा की पुस्तक की कीमत 300 रुपए, कापी में लूट, स्टेशनरी में लूट, कम्प्यूटर खरीद के फर्जी बिल, क्या नहीं कर रहे निजी स्कूल। आखिर अभिभावक जाएं तो जाएं कहां? ऐसा नहीं है कि यह समस्या केवल दिल्ली में है। हर राज्य में निजी स्कूल माफिया लूट में सक्रिय हैं। देश में प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक में खामियां भरी हुई हैं। उसमें व्यापक सुधार की जरूरत है।
अगर कुछ राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों पर नजर दौड़ाई जाए तो शिक्षा का मुद्दा हाशिये पर ही दिखाई देता है। प्रत्येक दल सबको शिक्षा, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बातें करके खानापूर्ति कर देते हैं। देखना होगा कि बड़े राजनीतिक दल शिक्षा के मुद्दे पर क्या करते हैं। जरूरत है शिक्षा की पुरानी लकीर के सामने बड़ी लम्बी लकीर खींचने लायक योजनाएं बनाने की जिससे अमीर और गरीब के बीच शिक्षा को लेकर खाई को पाटा जा सके। निजी स्कूलों की लूट चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बनता जबकि इससे हर कोई पीड़ित है। जब सड़क, पानी, बिजली मुद्दा बन सकते हैं तो शिक्षा क्यों नहीं?