इसमें कोई संदेह नहीं कि नरेन्द्र मोदी के 5 वर्ष के शासनकाल में न्यू इंडिया ने नई परिभाषाएं गढ़ी हैं। भारत ने पुराने मिथकों को तोड़ा है। वैश्विक सियासत में भारत की भूमिका पहले से कहीं अधिक बड़ी हो गई है। आतंकवाद के मुद्दे पर भारत अलग-थलग पड़ा हुआ था, 2008 के मुम्बई हमले के दौरान वैश्विक शक्तियां पाकिस्तान का नाम लेने से बच रही थीं, वहीं आज पुलवामा हमले के लिए पाकिस्तान को दोषी ठहरा रही हैं। अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन और रूस हमारे साथ खड़े हैं। 1965, 1971 और 1999 में कूटनीति में कमजोर भारत ने अब प्रायोजित आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान को नंगा कर दिया है और किसी भी देश ने पुलवामा अटैक के बाद पाक के आतंकवादी शिविरों पर एयर स्ट्राइक पर सवाल नहीं उठाए।
उड़ी हमले के बाद सर्जिकल स्ट्राइक पर भी किसी दूसरे देश ने आपत्ति नहीं की थी। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत विश्व को यह संदेश देने में सफल रहा है कि हम शांति चाहते हैं और शांति के लिए हम युद्ध करने के लिए तैयार हैं। अंतर्राष्ट्रीय दबाव के चलते ही पाकिस्तान भारतीय पायलट अभिनन्दन को बिना शर्त सकुशल लौटाने के लिए मजबूर हुआ। डोकलाम विवाद में चीन को भी इस बात का अहसास हो चुका है कि भारत अब 1962 वाला भारत नहीं रहा। भारत अब आंख झुकाता नहीं, आंख मिलाकर बात करता है। नरेन्द्र मोदी के शासन में व्यवस्था में काफी बदलाव भी देखे गए। अनेक कल्याणकारी योजनाओं की शुरूआत भी हुई और उनके परिणाम भी सुखद रहे। निर्वाचित सरकारें जनता के कल्याण के लिए परियोजनाएं चलाती हैं और उनमें विसंगतियां भी होती हैं, लेकिन मोदी सरकार ने इन विसंगतियों को समय-समय पर दूर भी किया है।
6 माह पहले इस बात की आशंका व्यक्त की जा रही थी कि 2019 का चुनाव जीतना नरेन्द्र मोदी सरकार के लिए काफी मुश्किल होगा लेकिन पुलवामा हमले के बाद एक देश की वायु सीमा रेखा पार कर आतंकी ठिकानों पर किए गए हवाई हमलों ने पूरा परिदृश्य ही बदल दिया। राष्ट्र का स्वाभिमान काफी ऊंचा हो गया और भारत के जनमानस में राष्ट्रवाद की भावना जागृत हो गई। विपक्ष भले ही लाख आलोचना करे लेकिन भारत की जनता इसका पूरा श्रेय नरेन्द्र मोदी के साहसपूर्ण निर्णय को ही देती है। ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सामने चुनौतियां नहीं हैं। बेरोजगारी, किसान और अर्थतंत्र से जुड़े मुद्दे भी चुनौतियां हैं। इतने बड़े विशाल देश में ऐसी चुनौतियों का सामना तो लगभग हर सरकार को करना पड़ा है।
अब सवाल यह उठता है कि देश की जनता 2019 के चुनावों में कैसा जनादेश देती है। भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के कुछ सहयोगी छूटे तो कई नए जुड़ गए जबकि कांग्रेस और अन्य दलों का महागठबंधन जमीनी रूप नहीं ले पाया। राज्यों में कांग्रेस अलग-अलग दलों से गठबंधन कर रही है। राष्ट्रीय स्तर पर देखा जाए तो नरेन्द्र मोदी के राजनीतिक कद के मुकाबले कोई विपक्षी नेता नजर नहीं आता। भारतीय जनता गठबंधन की सरकारों का हश्र पहले ही देख चुकी है। 1984 के बाद भारतीय राजनीति एक अलग दिशा तय कर रही थी। राजनीति के बड़े चेहरे अस्त हो चुके थे। सरकारें आती गईं, जाती गईं। मंडल-कमंडल की राजनीति को भी देखा लेकिन उस दौर में वैकल्पिक राजनीति की तस्वीर भी धुंधली हो गई थी।
इसके साथ ही भारतीय सियासत में किसी एक दल की सरकार का बनना सपने की तरह हो गया। भारतीय राजनीति में गठबंधन की नींव पड़ चुकी थी और बदस्तूर करीब ढाई दशक तक जारी रही। अटल जी के नेतृत्व में पहली गैर कांग्रेसी सरकार भी राजग गठबंधन सरकार थी, मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दो बार कांग्रेस नीत सरकार बनी तो वह भी यूपीए की सरकार थी। 2014 का इतिहास अपने आप को दोहरा रहा था। भारत के क्षितिज पर भगवा झंडा अपनी छटा बिखेर रहा था और दिल्ली पर नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सत्ता हासिल कर चुकी थी। भाजपा को अपने दम पर बहुमत मिला था, उसे सहयोगियों की जरूरत ही नहीं थी लेकिन भाजपा को गठबंधन धर्म भी निभाना था।
नरेन्द्र मोदी सरकार अनेक उपलब्धियों और चुनौतियों के बीच चुनावी महासमर में लड़ने के लिए जनता की अदालत में है। लगभग 35 वर्ष के पत्रकारिता के अनुभव के आधार पर मेरा आकलन यह है कि भारत की जनता नरेन्द्र मोदी सरकार को पुनः पांच वर्ष का अवसर देने के लिए मन बना चुकी है। सबसे पहले बात करते हैं जम्मू-कश्मीर की। 2014 के चुनाव में भाजपा को राज्य की 6 सीटों में से जम्मू की दो सीटें और लद्दाख संसदीय सीट पर विजय हासिल हुई थी। हालांकि लद्दाख से भाजपा सांसद थुप्सन चेवांग ने अपनी सीट से इस्तीफा दे दिया था। वह लद्दाख के लिए भाजपा से केन्द्रशासित राज्य का दर्जा मांग रहे हैं। अनंतनाग सीट महबूबा मुफ्ती के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने पर इस सीट से इस्तीफा देने से रिक्त पड़ी है। एक सीट पर नेशनल कान्फ्रैंस विजयी हुई थी।
पुलवामा हमले के बाद सरकार ने बालाकोट में असाधारण साहस का परिचय दिया है, उसने जनता की सोच बदली है। जम्मू की दो सीटों पर भाजपा का ही वर्चस्व रहेगा। हाल ही में लद्दाख को अलग डिविजन का दर्जा, कलस्टर यूनिवर्सिटी और जोजिला टनल के निर्माण की जो सौगात मिली है, उससे भाजपा को एक बार फिर लद्दाख सीट पर अपनी पकड़ मजबूत करने का मौका मिला है। कांग्रेस कोई ज्यादा सक्रिय नहीं है और नेकां से उसका गठबंधन हो सकता है। मेरा अनुमान है कि जम्मू-कश्मीर में भाजपा को तीन सीटें मिल सकती हैं। पीडीपी का चुनावी एजेंडा धारा 370 और अनुछेद 35ए को बरकरार रखना ही होगा। मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की आक्रामक शैली भाजपा के लिए निर्णायक सिद्ध होगी। बाकी चर्चा मैं कल के लेख में करूंगा।