संसद में बहस से न तो सत्ताधारी दल भाग सकता है और न ही विपक्ष। हमारी सम्पूर्ण संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली का मूलाधार संसद को कोई भी सरकार सन्दर्भहीन या असंगत बनाने का प्रयास यदि करती है तो इसका मतलब केवल यही निकलता है कि उसके प्रति लोगों में अविश्वास पैदा हो रहा है जिससे बचने के लिए वह उन ज्वलन्त मुद्दों पर बहस से भागने के बहाने ढूंढ रही है जिन्हें विपक्ष उठाना चाहता है अथवा इन्हें उठाने की मांग कर रहा है। संसदीय प्रणाली में सरकार को घेरने का विपक्ष के पास सबसे बड़ा अस्त्र अविश्वास प्रस्ताव होता है। इसका सम्बन्ध केवल सरकार गिराने से ही हो, एेसा भी नहीं है। इसकी वजह यह है कि अविश्वास प्रस्ताव रखने के लिए सदन की कुल सदस्य संख्या की शक्ति के दस प्रतिशत सदस्यों की जरूरत होती है। अतः सरकार के समर्थन में संख्या बल का इससे प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है।
लोकसभा में पूर्ण बहुमत वाली सरकार के विरुद्ध भी विपक्ष को अविश्वास प्रस्ताव रखने का अधिकार हमारा संविधान देता है जिसे मानने के लिए लोकसभा अध्यक्ष बाध्य होते हैं। यदि यह प्रस्ताव संविधानगत सभी शर्तें पूरी करता है तो अध्यक्ष के पास इसे सदन में रखने के अलावा कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है। सदन के भीतर अव्यवस्था का होना या शोर-शराबा अथवा नारेबाजी होने से अविश्वास प्रस्ताव की वैधता किसी भी सूरत में हल्की नहीं पड़ती, क्योंकि सदन में व्यवस्था कायम करने के लिए अध्यक्ष के पास व्यापक अधिकार होते हैं जो सदन काे चलाने की नियमावली में निर्दिष्ट होते हैं मगर वर्तमान में लोकसभा में तेलगूदेशम व वाईएसआर कांग्रेस द्वारा अविश्वास प्रस्ताव लाये जाने पर भ्रम का माहौल पैदा हो रहा है जिसका निराकरण केवल लोकसभा अध्यक्ष ही कर सकती हैं। अविश्वास प्रस्ताव के नियमानुरूप पाये जाने पर उन्हें संविधान के अनुच्छेद-75 का अनुपालन करते हुए इसे सदन की अनुमति के लिए रखना आवश्यक है और यह जानना आवश्यक है कि प्रस्ताव रखने वाले सदस्य के साथ कितने सांसदों की सहमति है। इसका आकलन वह केवल सदन के भीतर ही कर सकती हैं।
सदन में यदि अव्यवस्था या शोर-शराबा अथवा नारेबाजी होती है तो उसे स्थगित करने का उन्हें अधिकार है मगर अविश्वास प्रस्ताव की स्थिति पर असर नहीं पड़ता, क्योंकि वह सभी शर्तों को पूरा करके दिया गया है। एक बार सदन में अविश्वास प्रस्ताव रखे जाने की मंशा व्यक्त किये जाने के बाद यह सदन की सम्पत्ति बन जाता है जिस पर सदन के सभी सदस्यों का बराबर का अधिकार हो जाता है। इसके साथ ही हम अविश्वास प्रस्ताव को किसी दूसरे नाम से भी नहीं पुकार सकते हैं। अतः बहुत ही स्पष्ट है कि लोकसभा में जिस तरह आज तेलंगाना राष्ट्रीय समिति और अन्नाद्रमुक पार्टी के सांसदों ने अध्यक्ष के आसन के निकट आकर नारेबाजी और पोस्टर दिखाये उनका अविश्वास प्रस्ताव की वैधता से कोई लेना-देना नहीं है। पूरे देश ने देखा है कि इसी सदन में किस प्रकार भारत का वार्षिक बजट नारेबाजी और शोर-शराबे के बीच ध्वनिमत से पारित कराया गया, जबकि इस पर रखे गये कुछ संशोधन प्रस्तावों पर मतगणना कराने की मांग भी केरल के सांसद प्रेमचन्द्रन ने की थी। धन विधेयक का इस तरह पारित होना वास्तव में संसदीय लोकतन्त्र के स्वास्थ्य के प्रति चिन्ता पैदा करता है।
लोकसभा अध्यक्ष इस संसदीय प्रणाली की शुचिता और पवित्रता के संरक्षक होते हैं और प्रत्येक सदस्य के संवैधानिक अधिकारों के संरक्षक होते हैं। उनके लिए सत्ता और विपक्ष के सांसदों में कोई अंतर नहीं होता। वह केवल नियम का पालन आंखें मूंद कर करते हैं। वक्त पड़ने पर इस मर्यादा और गरिमा को बरकरार रखने के लिए वह सख्ती से भी पेश आ सकते हैं। एेसा हमने पिछले वर्ष देखा भी था जब कुछ अव्यवस्था फैलाने वाले विपक्षी सांसदों को सदन की कार्यवाही में सीमित समय के लिए भाग न लेने के निर्देश दिये गये थे। अतः अविश्वास प्रस्ताव का मामला बहुत सीधा-सादा है। इसे ज्यादा पेचीदा बनाने से हम संसद की उस गरिमा के साथ खिलवाड़ करेंगे जिसे बनाने में पीढि़यां खप गई हैं। बेहतर होगा कि स्वयं सत्तापक्ष भाजपा के लोग ही इस मामले में आगे बढ़कर पहल करें।
अतः संसदीय कार्यमन्त्री अनन्त कुमार को सदन के भीतर नारेबाजी करने वाली पार्टियों के नेताओं से बातचीत करके समस्या का हल निकालना चाहिए। आखिरकार अन्त में बहस का जवाब प्रधानमन्त्री को ही तो देना पड़ेगा और उनकी सरकार के पास पर्याप्त संख्याबल है तो फिर घबराना क्यों और किसलिए? जब जीत निश्चित है और अविश्वास प्रस्ताव गिरना ही है तो फिर बहस को क्यों टाला जाए। दूध का दूध और पानी का पानी अगर संसद में नहीं होगा तो फिर कहां होगा? पिछले उदाहरणों को देखकर ही हमें कुछ सबक सीखना चाहिए!
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