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अमित शाह का ब्रह्मफांस

केन्द्र की मोदी सरकार ने अंग्रेजों के शासनकाल में कई कानूनों और नियमों को समाप्त कर जनता को अर्थहीन हो चुके कानूनों से राहत दी है।

केन्द्र की मोदी सरकार ने अंग्रेजों के शासनकाल में कई कानूनों और नियमों को समाप्त कर जनता को अर्थहीन हो चुके कानूनों से राहत दी है। समय के साथ-साथ कानूनों में बदलाव भी जरूरी होता है। अंग्रेज तो यहां से चले गए लेकिन उनके बनाए गए कानून आज भी लागू हैं। इसमें दो राय नहीं कि आजादी के अमृतकाल तक आते-आते हमारे देश में बहुत बदलाव हुए हैं। अंग्रेजों की बहुत सारी यादें अब धुंधली हो चुकी हैं। नई पीढ़ी भारत के स्वतंत्रता इतिहास से कितना रूबरू होगी यह उसके​ विवेक पर निर्भर करता है। अंग्रेजों ने अपनी सुविधा के​ लिए जो कानून बनाए थे उनका एकमात्र उद्देश्य भारत में राज करना और विरोध के स्वरों को कुचलना ही था। इनमें भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) और क्रिमीनल प्रोसीजर कोड (सीआरपीसी) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम शामिल है। देश को आजादी मिलने के बाद से किसी भी सरकार ने अब तक इन कानूनों को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में नहीं देखा। इनके अलावा भी कई कानून ऐसे हैं जिनका बोझ देश ढोता आ रहा है। इसलिए अब ऐसे कानूनों को बदलने की जरूरत महसूस की जा रही है। 
गृहमंत्री अमित शाह पिछले काफी समय से जघन्यतम अपराधों में​ लिप्त अपराधियों को कड़ी और जल्द से जल्द सजा दिलाने के प्रावधानों पर काम कर रहे हैं और इस ​दिशा में आगे बढ़ने के लिए विशेषज्ञों की राय ली जा रही है। गृहमंत्री अमित शाह ने दिल्ली पुलिस के 76वें स्थापना दिवस पर आईपीसी, सीआरपीसी और एविडैंस एक्ट में बदलाव करने की घोषणा की है। इसके साथ ही फारैंसिक जांच के लिए भी समय सीमा तय करने की जानकारी दी है। गृहमंत्री इन कानूनों में बदलाव करके ऐसा ब्रह्मफांस तैयार कर रहे हैं ताकि खूंखार से खूंखार अपराधी भी बच न सके। इसके लिए राष्ट्रीय फारैंसिक साइंस विश्वविद्यालय की संरचना और उपयोगिता को लगातार मजबूत करने पर जोर दिया जा रहा है। भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) 1861 में बनाई गई थी। आईपीसी की ड्राफ्टिंग अंग्रेजों के एक अधिकारी वी. मैकाले ने की थी। इस कानून की जटिलताएं इतनी हैं कि भारत का साधारण आदमी तो इसे समझ ही नहीं सकता। इसी तरह अपराधिक प्रक्रिया संहिता भी जटिलताओं से भरी पड़ी है। इसी कारण भारतीयों को न्याय नहीं मिल रहा और मुकद्मे सालों साल लटकते  रहते हैं। भारतीय साक्ष्य अधिनियम को मूल रूप से वर्ष 1872 में ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किया गया था। समय-समय पर इसमें कुछ संशोधन भी किए गए। यह अधिनियम बताता है कि कौन-कौन सी चीजें साक्ष्य के तौर पर इस्तेमाल की जा सकती हैं। अब बदलते दौर में इन कानूनों में बदलाव की जरूरत है।
अब छह वर्ष से अधिक की सजा वाले अपराधों में फॉरैंसिक  जांच को अनिवार्य किया जा रहा है, ताकि अपराधी को जल्द सजा दिलाई जा सके। साथ ही यह प्रावधान किसी मामले में फर्जी रूप से फंसाए गए अपराधियों को बचाने का भी काम करेगा। किसी मामले में फर्जी रूप से फंसाए गए आरोपी के  खिलाफ फॉरैंसिक जांच में सुबूत नहीं मिलने पर वह इस मकड़जाल से बचकर बाहर भी आ सकेगा। इसका मकसद निर्दोष को बाहर निकालना और अपराधियों को सजा की दहलीज तक पहुंचाना है। इसके लिए सरकार हर जिले में कम से कम एक मोबाइल फॉरेंसिक जांच यूनिट उपलब्ध कराने के लक्ष्य पर काम कर रही है, जिसमें जांच में पूरी निष्पक्षता और पारदर्शिता हो। साथ ही किसी भी तरह से जांच के प्रभावित होने की आशंका न हो। अमित शाह के अनुसार भारत में अब ऐसी प्रणाली विकसित होने जा रही है, जिससे विकसित देशों से भी अधिक सजा दिलाने की दर को हासिल किया जा सकेगा। इसके लिए बड़ी संख्या में देश में फॉरैंसिक साइंस विशेषज्ञ तैयार किए जाएंगे। साथ ही फॉरैंसिक साक्ष्यों को कानूनी बनाया जाएगा। यह तभी सम्भव हो सकेगा जब छह साल से अधिक सजा वाले मामलों में फॉरैंसिक जांच को अनिवार्य कानून के दायरे में लाया जाए।
दिल्ली अपराधों की फॉरैंसिक जांच करने वाला देश का पहला राज्य होगा। दिल्ली पुलिस में पांच मोबाइल फॉरैंसिक वैन शामिल कर ली गई हैं। गृहमंत्री अमित शाह राजनीति में तो चाणक्य माने जाते ही हैं, देश को न्याय व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए वह जिस परिपक्व सोच के साथ आगे बढ़ रहे हैं, उसकी सराहना की जानी चाहिए। फॉरैंसिक साइंस के सबूतों के जरिये दोष सिद्धी की दर में बढ़ौतरी होगी और इससे अपराधियों में कानून का खौफ पैदा होगा।

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