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‘चाको’ का ‘चाकू’ हो जाना !

ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस को समाप्त करने की सुपारी खुद कांग्रेसियों ने ही ले ली है जो एक-एक करके ये पार्टी से पलायन करते जा रहे हैं और अपनी ही पार्टी के नेतृत्व को लगातार नीचा दिखाने की जुगत में लगे रहते हैं।

ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस को समाप्त करने की सुपारी खुद कांग्रेसियों ने ही ले ली है जो एक-एक करके ये पार्टी से पलायन करते जा रहे हैं और अपनी ही पार्टी के नेतृत्व को लगातार नीचा दिखाने की जुगत में लगे रहते हैं। दरअसल कांग्रेस के नेता सत्ता के सुख से इतने अभिभूत रहे हैं कि इन्हें विपक्ष में बैठना ही किसी सजा से कम नहीं लग रहा है। वरना क्या वजह है कि ये नेता इतना भी नहीं समझ रहे कि 1996 से लगातार 2004 तक विपक्ष में रहने के बाद ही पार्टी नये गठबन्धन बना कर सत्ता पर काबिज होने में कामयाब हुई थी। इन नेताओं को यह बताने की जरूरत नहीं है कि लोकतन्त्र तभी मजबूत रह सकता है जब इसमें विपक्ष भी मजबूत बना रहे। पूरी दुनिया जानती है कि 1984 के बाद से कांग्रेस कभी अपने बूते पर इसके बाद लोकसभा में पूर्ण बहुमत लाने में कामयाब नहीं हो सकी और इसके उलट विपक्षी पार्टी भाजपा जिसके 1984 में केवल दो सांसद लोकसभा में चुन कर आये थे वह लगातार मजबूत होकर 2019 के चुनावों तक 545 लोकसभा सदस्यों में से 302 सदस्य चुनवाने में सफल रही । इसके पीछे एक प्रमुख कारण यह था कि भाजपा में आंतरिक अनुशासन हमेशा बना रहा और इसका नेता से लेकर कार्यकर्ता रात-दिन पार्टी को मजबूत बनाने की कोशिश में लगा रहा। मगर कांग्रेस में तो अब एेसी हवा चली है कि जो जिस डाल पर बैठा है उसे ही काटने में अपनी शान समझ रहा है। कांग्रेसी अजीब मृग मरीचिका के शिकार हो रहे हैं। पार्टी के भीतर चुनाव होते ही रेत में दरिया बहने लगेगा और वे सब सत्ता की अपनी प्यास बुझा लेंगे।
 हकीकत तो यह है कि जब 2018 में श्री राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने तीन राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व राजस्थान के चुनाव जीते थे तो पूरी पार्टी को एकजुट होकर उठ कर खड़ा हो जाना चाहिए था और अपनी जड़ों को मजबूत करने के प्रयासों में लग जाना चाहिए था। मगर हुआ इसका उल्टा, ये फिर से गुजबाजी में लग गये और भूल गये कि देश में राजनीति का नया कलेवर श्री नरेन्द्र मोदी की शक्ल में आ चुका है। उनकी लोकप्रियता के आगे कांग्रेस को टिकाये रखने के लिए बहुत जरूरी था कि यह पार्टी उसी तरह काम करती जिस तरह 1984 के बाद भाजपा ने किया था। राजनीति में सत्ता पक्ष और विपक्ष एक-दूसरे से सीखते हुए चलते हैं। यदि ऐसा न होता तो अगली सरकारें अपने से पिछली सरकारों की परियोजनाएं और स्कीमों व योजनाओं को और तराश कर व मांज कर क्यों लागू करने में मशगूल रहती ? मगर केरल कद्दावर कांग्रेसी नेता पी.सी. चाको को कौन समझाये कि राष्ट्रीय राजनीति के समानान्तर कांग्रेस को भी अपने रंग-ढंग बदलने होंगे और समय की चुनौतियों के अनुरूप स्वयं को बदलना होगा। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि चुनाव हारने या जीतने से कोई भी व्यक्ति छोटा या बड़ा नेता नहीं बनता है बल्कि अपने विचारों के प्रसार से छोटा या बड़ा नेता होता है। 
समाजवादी जन नायक डा. राम मनोहर लोहिया कितनी बार चुनाव जीते थे? केवल एक बार 1963 में और वह भी उप चुनाव। मगर देश की राजनीति में उन्होंने अपने विचारों की ऐसी छाप छोड़ी, केरल से लेकर ओडिशा तक में उनकी पार्टी के समर्थक पैदा हो गये। इसी प्रकार स्वतन्त्र पार्टी के संस्थापक और स्वतन्त्र भारत के पहले भारतीय गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी तो एक भी प्रत्यक्ष चुनाव नहीं लड़े। केवल एक बार वह मदास विधानपरिषद में चुने गये थे और मुख्यमन्त्री बन गये थे। हकीकत यह है कि राजा जी चुनाव लड़ने से डरते थे, इसके बावजूद राजनीतिज्ञ नहीं बल्कि ‘राजनेता’  कहलाते थे। कहने का मतलब यह है कि कांग्रेस पार्टी को इस संक्रमण काल में प्रभावी विपक्ष की भूमिका निभाने हेतु वैचारिक स्तर पर अपने को मजबूत बनाये रख कर विचारों की शक्ति पर अपनी एकजुटता को बांधे रखना होगा तभी भविष्य में यह पार्टी  बेहतरी प्राप्त कर सकती है। कोई भी पार्टी अपने ही नेताओं की इच्छा का सम्मान तो कर सकती है मगर उनकी ‘लिप्सा’  को पूरा नहीं कर सकती। जिन नेताओं ने भाजपा की मजबूती का बहाना बना कर पुनः सत्ता में आने की इच्छा ही त्याग दी है उन्हें विपक्ष में भी रहने का कोई अधिकार नहीं है। बेहतर हो कि पार्टी नेतृत्व को ऐसे नेताओं से स्वयं ही छुटकारा पा लेना चाहिए। ऐसा भी विपक्ष की राजनीति में एक बार हो चुका है जब 1972 में जनसंघ (आज की भाजपा) में स्व. अटल बिहारी वाजपेयी व स्व. बलराज मधोक के बीच खुल कर राजनीतिक युद्ध हुआ था। बलराज मधोक की सदारत में जनसंघ ने 1967 के चुनावों में उत्तर भारत में शानदार सफलता प्राप्त की थी जबकि अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 1971 के चुनावों में पार्टी की करारी हार हुई थी और इसके 33 सांसदों की संख्या घट कर आधी रह गई थी। मगर वैचारिक स्तर पर पूरी पार्टी ने तब अटल जी का साथ दिया था। बाद में बलराज मधोक ने जनसंघ छोड़ दी और अपनी अलग राष्ट्रीय जनसंघ पार्टी बनायी जो राजनीतिक तूफान में कहां चली गई किसी को नहीं मालूम। अतः कांग्रेस भी आज ऐसे ही हिचकोलों में झूल रही है और समय के थपेड़े ही इसका सही इलाज भी करेंगे। श्री चाको को कांग्रेस ने केरल का उद्योगमन्त्री बनाने से लेकर केन्द्र में सुंयक्त संसदीय जांच समिति का मुखिया तक बनाया मगर हुजूर ने जरा सी उपेक्षा हो जाने पर ही हाथ में चाकू की धार की तरह वार पर वार कर डाले।

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