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गरीबों को आरक्षण पर विवाद

भारत में साठ के दशक से ही यह बहस चलती रही है कि आरक्षण आर्थिक आधार पर किया जाना चाहिए न कि जातियों के आधार पर।

भारत में साठ के दशक से ही यह बहस चलती रही है कि आरक्षण आर्थिक आधार पर किया जाना चाहिए न कि जातियों के आधार पर। मगर यह बहस इसलिए बेमानी है कि भारतीय समाज में शोषण सदियों से जातियों के आधार पर ही होता रहा है जिसे देखते हुए स्वतन्त्र भारत के संविधान में जातिगत आधार पर ही आरक्षण की व्यवस्था की गई जिसका आर्थिक स्थिति से कोई लेना-देना नहीं था। जिन जाति के लोगों को चिन्हित किया गया उन्हें अधिसूचित जातियां कहा गया और साथ ही आदिवासियों के लिए भी इसी आधार पर आरक्षण किया गया। परन्तु स्थिति तब गड़बड़ा गई जब 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशें मानते हुए अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई।  अधिसूचित जातियों व जन जातियों ( 22.5 प्रतिशत ) व पिछड़ा वर्ग 27 प्रतिशत को मिला कर कुल आरक्षण 49.5 प्रतिशत हो गया। पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देते हुए शैक्षणिक रूप से पिछड़ेपन को भी जोड़ दिया गया।
संविधान की प्रस्तावना से लेकर विशिष्ट अनुच्छेदों में यह प्रावधान है कि आर्थिक रूप से विपन्न लोगों के उत्थान के लिए भी सरकारें कार्य करेंगी। अतः 2019 में मोदी सरकार ने 103वां संविधान संशोधन करके यह व्यवस्था की कि पिछड़ा वर्ग व अधिसूचित जाति व जनजाति को छोड़ कर शेष समाज के गरीब तबके को 10 प्रतिशत आरक्षण दिया जायेगा जिसकी व्यवस्था राज्य सरकारें भी अपने-अपने क्षेत्र में करेंगी। यह व्यवस्था सरकारी नौकरियों से लेकर शिक्षण संस्थानों (निजी संस्थानों तक में) होगी। मगर 1992 में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि कुल आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता। यहां यह समझना जरूरी है कि संविधान में मूल रूप से अनुसूचित जातियों व जन जातियों को राजनैतिक आरक्षण दिया गया था अर्थात विधानसभाओं व लोकसभा से लेकर अन्य चुने हुए सदनों में 22.5 प्रत्याशी इन वर्गों से चुने जायेंगे। 
लोकतन्त्र की राजनैतिक सत्ता में सदियों से अमानवीय व्यवहार के शिकार रहे इन वर्गों को बराबरी पर लाने के लिए यह व्यवस्था की गई थी। इसके साथ ही सरकारी नौकरियों में भी इन्हें आरक्षण दिया गया और इनके लिए आयोजित परीक्षाओं में इस वर्ग के अभ्यर्थियों के लिए सरल योग्यता नियम बनाये गये। उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के भी इसी प्रकार के नियम बनाये गये। परन्तु 1990 में लागू मंडल आयोग में पिछड़े वर्ग के लोगों को केवल शिक्षण संस्थानों व नौकरियों में ही आरक्षण दिया गया राजनैतिक संस्थानों में नहीं। इनके लिए भी योग्यता पैमाने में छूट दी गई। इससे समाज के अन्य वर्गों के गरीब तबके के लोगों के बीच कुंठा का भाव जागा क्योंकि उनकी आर्थिक स्थिति खराब होने के बावजूद उनके लिए योग्यता पैमाना अन्य वर्गों के लोगों के समान ही था। मगर सवाल यह था कि जब आरक्षण की अवधारणा संविधान निर्माताओं के समक्ष केवल सामाजिक या सांस्कृतिक पिछड़ापन था तो उसमें आर्थिक पक्ष का समावेश होने से क्या सामाजिक शोषण की ऐतिहासिकता को नकार नहीं देगा क्योंकि भारतीय समाज में किसी गरीब दलित और गरीब ब्राह्मण के बेटे की हैसियत को समाज में अलग-अलग जगह रख कर देखता है। आरक्षण यदि अनुसूचित जातियों व जनजातियों तक ही सीमित रहता तो उसके विरोध की कतई गुंजाइश भारतीय समाज में नहीं थी मगर 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने प्रधानमन्त्री के रूप में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करके जो छल और धोखा भारत के लोगों के साथ किया वह अक्षम्य कहा जायेगा क्योंकि दलितों पर सर्वाधिक अन्याय व जुल्म पिछड़े वर्ग के लोग ही गांवों में किया करते थे। मगर दुर्भाग्य से यह वोट बैंक की राजनीति चल निकली और पिछड़ा वर्ग के बहुसंख्यक हिन्दू समाज के लोगों ने इसे राजनीति का मुख्य जरिया बना लिया। पिछड़ेपन के शैक्षणिक व सामाजिक आधार में जमीन-आसमान का अन्तर होता है। यही वजह थी कि 1993 में केन्द्र की नरसिम्हाराव सरकार ने सबसे पहले एक सरकारी आदेश द्वारा गरीब वर्ग के लोगों के लिए  दस प्रतिशत आरक्षण करने का फैसला किया जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध करार देते हुए निर्देश दिया कि यह कार्य केवल संविधान संशोधन के जरिये ही किया जा सकता है । अतः मोदी सरकार ने 2019  संविधान संशोधन करके इसका फैसला किया। अब सर्वोच्च न्यायालय में इस संविधान संशोधन को चुनौती दी गई है। 
चुनौती देने वालों में तमिलनाडु की द्रमुक सरकार भी है जिसका कहना है कि उसके राज्य में अन्य या सवर्ण वर्गों की आबादी केवल तीन प्रतिशत ही है अतः दस प्रतिशत आरक्षण वह किस आधार पर दे जबकि उसके राज्य में 69 प्रतिशत आरक्षण पहले से ही है। यहां यह जानना जरूरी है कि राज्य सरकारें अपने-अपने राज्यों में विभिन्न शोषित वर्गों को आरक्षण देने के लिए स्वतन्त्र होती हैं बशर्ते यह धर्म के आधार पर न हो। परन्तु मोदी सरकार द्वारा गरीबों के आरक्षण के ​िलए किये गये संविधान संशोधन को संविधान के मूल ढांचे के विरुद्ध वे लोग बता रहे हैं जिन्हें पिछड़ा संरक्षण का सिपहसालार माना जाता है। गरीबों को मिलने वाले दस प्रतिशत आरक्षण की यह शर्त भी है कि राज्य सरकारें बिना सरकारी अनुदान प्राप्त शिक्षण संस्थानों में दस प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था करेंगी। 
दूसरा प्रश्न यह है कि गरीब की परिभाषा से केन्द्र सरकार ने अनुसूचित जातियों व जनजातियों तथा पिछड़े वर्ग को निकाल कर क्या संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं किया है ?  ये एक प्रश्न  है जिन पर सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ अब विचार करेगी और अपना फैसला देगी। परन्तु आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के हिमायती लोगों का कहना है कि गरीबी को जातियों व वर्गों से ऊपर उठ कर देखा जाना चाहिए। इन सभी तर्कों की परख अब देश की सबसे बड़ी अदालत में होगी मगर यह प्रश्न भी बिना सुलझे नहीं रहेगा कि प्रतिनिधित्व और आरक्षण में क्या भेद होता है? जाति जनगणना का सवाल भी इससे जुड़ा हुआ है।

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