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चुनावी नगाड़ा और राजनीति

देश में चुनावी नगाड़ा अब बज चुका है और राजनैतिक प्रतिद्वन्द्वी आमने-सामने आकर ताल ठोक रहे हैं। केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा का मुख्य मुकाबला विपक्षी दलों के गठबन्धन ‘इंडिया’ से होने जा रहा है जिसकी प्रमुख पार्टी कांग्रेस है। हालांकि भाजपा का भी 38 दलों से गठबन्धन एनडीए बताया जा रहा है मगर व्यावहारिकता में इसमें शामिल दलों का अस्तित्व नाम मात्र का ही है। अतः कहा जा सकता है कि असली मुकाबला भाजपा और इंडिया गठबन्धन के बीच है। अभी तक भाजपा व इंडिया गठबन्धन की तरफ से बड़ी संख्या में प्रत्याशियों की घोषणा भी कर दी गई है जिसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि पूरे देश में चुनावी लड़ाई बहुत जोरदार होगी। भाजपा जहां प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता को आगे रखकर चुनावी मैदान में उतर रही है वहीं इंडिया गठबन्धन पिछले दस साल से चल रही उनकी सरकार के खिलाफ उपजे रोष को केन्द्र में रखकर अपना विमर्श गढ़ता दिखाई पड़ रहा है। इसमें कोई दोराय नहीं हो सकती कि आदर्श स्थिति में भारत में होने वाले हर पांच साल बाद चुनावों के दौरान सत्तारूढ़ पार्टी से उसकी सरकार के हिसाब-किताब का लेखा-जोखा जनता मांगती है और फिर उसी के अनुरूप अपना अगला कदम तय करती है परन्तु ये लोकसभा के चुनाव हैं जिनमें आम जनता राजनैतिक नेतृत्व की भी तलबगार होती है। इस मोर्चे पर भाजपा की तरफ से स्थिति पूरी तरह साफ और स्पष्ट है कि चुनावों के बाद उसके प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ही होंगे मगर इंडिया गठबन्धन इस मोर्चे पर स्पष्ट नहीं है। 27 दलों के इस गठबन्धन को नेतृत्व देने वाला कोई नेता फिलहाल चुनाव से पहले नहीं चुना जा सका है और यह मुद्दा चुनावों के बाद के लिए छोड़ दिया गया है।
भारत के चुनावी इतिहास में दोनों ही तरह के उदाहरण हैं। 1971 के लोकसभा चुनावों में सभी विपक्षी दल तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के खिलाफ गठबन्धन बनाकर चुनावी मैदान में उतरे थे मगर बुरी तरह परास्त हुए थे मगर 1977 में इन्हीं दलों ने पुनः गठबन्धन बनाया था और एेतिहासिक विजय प्राप्त की थी। इन दोनों चुनावों में जो तथ्य प्रमुख था वह सत्ता से ही जुड़ा हुआ था। 1971 में चुनावी हवा सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी और इसकी नेता श्रीमती इन्दिरा गांधी के पक्ष में थी और 1977 में इसके खिलाफ थी। इसका कारण यह था कि 1971 में जनता सत्ता द्वारा किये गये कामों से उभरे विमर्श के पक्ष में थी जबकि 1977 में इसके द्वारा किये गये कार्यों के विरुद्ध थी। दोनों ही स्थिति में सत्तारूढ़ दल के कार्य ही केन्द्र में थे। मगर भारत में बहुराजनैतिक दलीय व्यवस्था है और चुनावों से पहले राजनीतिज्ञ अपने-अपने भविष्य को ध्यान में रखकर अपने खेमों में परिवर्तन करते हैं।
वर्तमान में भी हम एेसा होते हुए देख रहे हैं। जो राजनीतिज्ञ दल या खेमे बदलने में माहिर माने जाते हैं उन्हें राजनैतिक भाषा में मौसम वैज्ञानिक कहा जाता है। इस फन में अभी तक सबसे माहिर नेता स्व. रामविलास पासवान माने जाते थे क्योंकि चुनावों से पहले वह सम्भावित विजयी पक्ष के पाले में खड़े हो जाते थे परन्तु एक बार वह भी गच्चा खा गये थे जब 2009 के लोकसभा चुनावों के दौरान उन्होंने राष्ट्रीय जनता दल के नेता श्री लालू प्रसाद यादव के साथ मिलकर बिहार में लोकसभा चुनाव लड़ा था और कांग्रेस का साथ छोड़ दिया था। इन चुनावों में पासवान जी स्वयं चुनाव हार गये थे जबकि लालू जी बामुश्किल अपनी सीट जीत पाये थे। 2024 के चुनावों की उपमा बिना शक पिछले किसी भी लोकसभा चुनाव से नहीं दी जा सकती है क्योंकि इन चुनावों की राजनैतिक जमीन की हकीकत बिल्कुल अलग है। पूरे उत्तर भारत में भाजपा की जमीन इतनी मजबूत मानी जा रही है कि इसमें थोड़ा गुणा-भाग भी भाजपा बर्दाश्त नहीं कर सकती क्योंकि 2019 में इसने उत्तर के सभी राज्यों में झाड़ू जैसी लगा दी थी। इसलिए लड़ाई का असली मैदान इन चुनावों के दौरान उत्तरी राज्य ही रहेंगे।
बेशक भाजपा दक्षिण के राज्यों में भी जोर लगा रही है मगर इन राज्यों की राजनैतिक संस्कृति को देखते हुए यह विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता है कि यहां के लोग भारत के एकमेव सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के दायरे में लाये जा सकते हैं। हालांकि पिछली बार प. बंगाल की 42 सीटों में से 18 सीट जीत कर भाजपा ने सभी को आश्चर्य में डाल दिया था। अतः इस बार पार्टी इन राज्यों में प्रत्याशियों के चयन पर विशेष ध्यान दे रही है। इसी वजह से दूसरे दलों से भाजपा में आने वाले राजनीतिज्ञों के प्रति भाजपा इस बार विशेष उदारता दिखा रही है। हम एक और परिवर्तन इन चुनावों में देख रहे हैं कि सत्तारूढ़ और विपक्षी दल किसी एक प्रमुख चुनावी विमर्श पर जल्दी से टिक नहीं पा रहे हैं। यह विमर्श हमें कभी-कभी तो हर राज्य की राजनैतिक परिस्थितियों के अनुरूप बदलता सा भी दिखाई पड़ रहा है। बेशक कांग्रेस कोशिश कर रही है कि किसी प्रकार चुनावों का विमर्श ‘कल्याणकारी राज’ के मुद्दे पर लाकर चिकाया जाये। इसी वजह से वह आम मतदाता को केन्द्र में रखकर अपना चुनाव प्रचार कर रही है और कह रही है कि ‘मेरे विकास का हिसाब दो’। इसमें कोई हर्ज भी नहीं है क्योंकि लोकतन्त्र कहता है कि वही देश मजबूत बनता है जिसके नागरिक मजबूत होते हैं। इस बहाने कांग्रेस व भाजपा के बीच आर्थिक व सामाजिक मुद्दों पर लड़ाई छिड़ सकती है। जनतन्त्र में अन्तिम विजय आम आदमी की ही होती है क्योंकि इस व्यवस्था का असली मालिक वही होता है, क्योंकि उसके ही एक वोट की ताकत पर सरकार बनती और बिगड़ती है।

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