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लोकसभा चुनाव 2024

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हर-हर भोलेनाथ…

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‘हर-हर भोलेनाथ–घर-घर कमलनाथ’ और दूसरी तरफ ‘शिवराज आयो द्वार’ जैसे नारे सावन का महीना शुरू होते ही मध्य प्रदेश में जब सुनने को मिलते हैं तो अन्दाजा लगाया जा सकता है कि वर्षा का मौसम राजनीति में किस तरह की लहरें पैदा करेगा। जब तीन राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में चुनावी बारिश का यह माहौल हो तो समझा जा सकता है कि देश की राजधानी दिल्ली में चल रहे संसद के वर्षाकालीन सत्र का क्या नजारा होगा? संसद में नजारा बेशक दूसरा है मगर यहां भी बैठे सांसदों को इन तीन राज्यों में अपनी पार्टी के चुनावी भाग्य की चिन्ता न सता रही हो, एेसा नहीं है क्योंकि इसी सत्र के शुरू में रखे गये अविश्वास प्रस्ताव पर चली बहस के दौरान सत्तारूढ़ भाजपा पार्टी के सांसदों का जोर इन तीनों राज्यों में अपनी पार्टी की सरकारों के किये गये कामों का ब्यौरा देना रहा।

खासतौर से जबलपुर के सांसद राकेश सिंह ने जिस तरह मध्यप्रदेश व राजस्थान सरकारों की प्रशंसा की उससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि आगामी नवम्बर महीने में होने वाले इन चुनावों का कितना महत्व है क्योंकि अगले साल मार्च-अप्रैल महीने में होने वाले लोकसभा चुनावों का ये सेमीफाइनल माने जा रहे हैं। विशुद्ध रूप से हिन्दी पट्टी (काऊ बेल्ट) माने जाने वाले इन तीनों राज्यों में सत्तारूढ़ भाजपा व विपक्षी कांग्रेस की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है और चर्चित विपक्षी एकता की तसदीक भी इन राज्यों में होने जा रही है। इनमें सर्वाधिक महत्व मध्य प्रदेश का इसलिए है क्यों​िक इस राज्य में अन्य राज्यों के मुकाबले लोकसभा की सबसे ज्यादा सीटें 29 हैं। उसके बाद राजस्थान से 25 और छत्तीसगढ़ से 11 सीटें हैं। इनमें से मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पिछले 15 सालों से भाजपा की सरकारें काबिज हैं अतः कांग्रेस पार्टी ने जिस तरह इस राज्य की बागडोर अपने कद्दावर नेता श्री कमलनाथ के हाथ में देकर उनसे भाजपा के ‘शेर शिवराज’ को पटखनी देने के लिए कहा है उससे इस राज्य की राजनीति लगातार दिलचस्प होती जा रही है। अतः दोनों पार्टियां ही एक भी ऐसा मौका गंवाना नहीं चाहती हैं जिससे आम जनता को भरमाने में कोई चूक हो सके। यही वजह है कि सावन के महीने में शिवराज सिंह की जन आशीर्वाद यात्रा का तोड़ कांग्रेस ने इस तरह निकाला है कि इस राज्य में महाकालेश्वर मन्दिर से लेकर राज-राजेश्वर विश्वनाथ मन्दिर तक शिवराज सिंह की उस राजनीति का तोड़ सामने आ सके जो उन्होंने कुछ साधुओं को राज्यमन्त्री स्तर प्रदान करके शुरू की थी।

दरअसल मध्य प्रदेश में चुनाव दो व्यक्तित्वों के बीच साफ तौर पर होने जा रहे हैं क्योंकि भाजपा की तरफ से मुख्यमन्त्री श्री शिवराज सिंह को पूरी स्वतन्त्रता दे दी गई है। इसमें कोई बुराई नहीं है क्योंकि राज्य सरकार का कामकाज पिछले लगभग दस वर्षों से श्री शिवराज सिंह ही देख रहे हैं और कांग्रेस के श्री कमलनाथ पिछले लगभग 40 वर्षों से छिन्दवाड़ा लोकसभा सीट जीतते आ रहे हैं। उनके चुनाव क्षेत्र में हुए विकास को कांग्रेस माडल बताकर राज्य के मतदाताओं का दिल जीतना चाहती है जबकि शिवराज सिंह अपनी सरकार के कामों को आगे रख रहे हैं लेकिन श्री कमलनाथ के साथ समस्या कांग्रेस के साथ आने वाले अन्य सहयोगी दलों के साथ सीटों का तालमेल करने की है जिसमें बसपा व आंचलिक गौडावण पार्टी प्रमुख हैं। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने उन्हें कर्नाटक के सिद्धारमैया की तरह ही सर्वाधिकार से लैस किया हुआ है। अतः उनकी राह में पूर्व मुख्यमन्त्री दिग्विजय सिंह यदि कांटे बिछाने का काम भी करते हैं तो कमलनाथ की लोकप्रियता उस पर पार पाने में समर्थ हो सकती है बशर्ते पार्टी की पूरी राज्य इकाई इस लड़ाई को व्यक्तिगत हितों से ऊपर रखकर लड़े। दूसरी तरफ शिवराज सिंह की स्थिति भी कमोबेश एेसी ही है। इसी वजह से दोनों पार्टियों की तरफ से नहले पर दहला मारने की तरकीबें भिड़ाई जा रही हैं। यही वजह है कि कमलनाथ राज्य के किसानों व बेरोजगार युवकों की समस्याओं को उठा रहे हैं और व्यापमं कांड की याद दिला रहे हैं जबकि शिवराज आशीर्वाद यात्रा निकाल कर जनसम्पर्क करके उन्हें ढांढस बन्धा रहे हैं और बता रहे हैं कि सरकार ने स्कीमों की बाढ़ ला दी है। राज्य में उद्योग इकाइयों के बन्द होने से युवकों पर असर नहीं पड़ेगा।

दूसरी तरफ राजस्थान में हालात बिल्कुल दूसरे हैं। यहां कांग्रेस के युवा नेता सचिन पायलट ने भाजपा की वसुन्धरा सरकार के लिए इस तरह चुनौती फैंक रखी है कि राज्य की राजनीति उस दौर को याद करे जब पांच साल पहले यहां श्री अशोक गहलौत की सरकार थी। 2012 में जब इन तीनों राज्यों में चुनाव हुए थे तो भाजपा की तरफ से प्रधानमन्त्री पद के प्रत्याशी के तौर पर श्री नरेन्द्र मोदी का चयन हो चुका था और केन्द्र की मनमोहन सरकार की छवि कथित वित्तीय घोटालों के घटाटोप में फंस चुकी थी। तब राज्यों के मुद्दे हाशिये पर चले गये थे परन्तु इस बार के विधानसभा चुनावों में राज्य सरकारों के कामों के रिकार्ड की तसदीक ही मुद्दा बन रही है और भाजपा की कोशिश है कि उसके वर्तमान मुख्यमन्त्री ही विपक्षी दलों को पटखनी देकर यदि चुनाव जीतते हैं तो उसकी लोकसभा की राह बहुत आसान हो जायेगी मगर भाजपा अपने साथ तुरुप के इक्के की तरह प्रधानमन्त्री को इन चुनावों में जमकर प्रयोग न करे एेसा संभव नहीं है क्योंकि सत्ता विरोधी भावनाओं को दबाने में प्रधानमन्त्री सिद्धहस्त माने जाते हैं। छत्तीसगढ़ में रमन सिंह को बिखरे हुए विपक्ष का मुकाबला करना है क्योंकि यहां कांग्रेस से अलग होकर अपनी अलग पार्टी बनाने वाले श्री अजीत जोगी का दबदबा अभी तक बरकरार है। यदि इस राज्य में विपक्ष एकजुट नहीं हो पाता है तो नक्सली समस्या से ग्रस्त इस राज्य के लोग किस तरह का जनादेश देंगे यह देखना बहुत दिलचस्प होगा लेकिन सबसे ज्यादा दिलचस्पी मध्यप्रदेश में ही रहेगी क्योंकि यह राज्य जातिवाद से ऊपर उठकर अपने जनप्रतिनिधियों का चुनाव करने में मशहूर माना जाता है। इस राज्य की राजनैतिक संस्कृति उत्तरी राज्यों में सबसे अलग रही है। बेशक छत्तीसगढ़ में भी यह परंपरा रही है तभी तो आदिवासी चरित्र की वजह से इसके मध्य प्रदेश से अलग होने के बावजूद मुख्यमन्त्री का चयन कोई समस्या नहीं रही है। दरअसल संगठित मध्य प्रदेश की यह समाजवादी सोच की अन्तर्धारा का भी प्रभाव रहा है कि 1977 में यहां के रीवां के बलशाली महाराजा मार्तंड जू सिंहदेव को एक नेत्रहीन समाजवादी प्रत्याशी श्री के.के. शास्त्री ने हरा दिया था 1973 के उपचुनाव में जबलपुर से युवा प्रत्याशी श्री शरद यादव को विजय दिलाई थी। अतः जब श्री कमलनाथ ने उज्जैन स्थित महाकालेश्वर मन्दिर के देवाधिदेव शिव के नाम पत्र लिखा था तो इसी समाजवादी सोच को सतह पर लाने का प्रयास किया था जो शिवराज सिंह द्वारा उज्जैन से ही शुरू की जाने वाली जन आशीर्वाद यात्रा के सन्दर्भ में था। एेसा खूबसूरत लोकतान्त्रिक युद्ध किसी अन्य राज्य में देखने में नहीं आ रहा है।

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