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हिजाब और मुस्लिम महिला शिक्षा

मुस्लिम छात्राओं में हिजाब पहनने को लेकर जो व्यर्थ का विवाद छिड़ा हुआ है उसके पीछे का अटल सत्य यह है कि ​​शिक्षा को लेकर मुस्लिम जगत में लगातार जागरूकता बढ़ रही है और विद्यालयों से लेकर कालेजों तक में इनकी संख्या में उत्साहजनक वृद्धि हो रही है।

मुस्लिम छात्राओं में हिजाब पहनने को लेकर जो व्यर्थ का विवाद छिड़ा हुआ है उसके पीछे का अटल सत्य यह है कि ​​शिक्षा को लेकर मुस्लिम जगत में लगातार जागरूकता बढ़ रही है और विद्यालयों से लेकर कालेजों तक में इनकी संख्या में उत्साहजनक वृद्धि हो रही है। 21वीं सदी के धर्मनिरपेक्ष भारत में यह बहुत सकारात्मक परिवर्तन है जिसका प्रत्येक सजग नागरिक को स्वागत करना चाहिए परन्तु तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि मुस्लिम महिलाओं में शिक्षा का प्रसार तेज होने से इस सम्प्रदाय के कट्टरपंथी और विशेषकर मुल्ला-मौलवियों की हैसियत को मुस्लिम समाज की तरफ से ही चुनौती मिलनी शुरू हुई है। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि यदि किसी परिवार की मां पढ़ी-लिखी होती है तो उसके प्रभाव से पूरी नई पीढ़ी शिक्षित बनती है और उसका रुझान वैज्ञानिक विचारों की तरफ बढ़ता है। इस मामले में एक तर्क यह दिया जा रहा है कि  मुस्लिम छात्राओं की पढ़ाई की तरफ वर्तमान मां-बाप जोर दे रहे हैं और विद्यालय स्तर तक उन्हें हिजाब में रहने की ताकीद भी करते हैं तो आगे उच्च शिक्षा प्राप्त करके ये महिलाएं स्वयं ही हिजाब को प्रतिगामी या पीछे ले जाने वाली रस्म के तौर पर त्याग देंगी और समय के साथ कदम मिलाते हुए चलेंगी।
इसके विपरीत तर्क यह है कि यदि मुस्लिम महिलाओं को किशोरावस्था से ही हिजाब की आदत डाली जायेगी तो आगे चल कर भी वे धर्म भीरू बन कर धार्मिक कट्टरपंथियों का मुकाबला नहीं कर सकेंगी और हिजाब को अपने समाज की आवश्यक रस्म मानने लगेंगी और बदलते वक्त के साथ कदमताल नहीं कर सकेंगी। इसका मतलब यही निकाला जायेगा कि शिक्षित मुस्लिम स्त्रियां धार्मिक कट्टरपंथियों की हिदायतों को तोड़ने का साहस नहीं दिखा पायेंगी जिसकी वजह से मुल्ला-मौलवी लगातार हिजाब को इस्लाम की पहचान दिखाना चाहते हैं। यह भी मनोवैज्ञानिक सत्य है कि यदि किसी समाज को बदलना है और उसे रूढ़ीवादी परंपराओं से निकाल कर वैज्ञानिक सोच में ढालना है तो किशोरवस्था से ही हर बालक-बालिका को किसी भी परंपरा को वैज्ञानिक तर्कों से सिद्ध किया जाना चाहिए न कि उसे आंख मींच कर स्वीकार करने की सीख देनी चाहिए। जाहिर है कि किसी भी व्यक्ति की पोशाक स्थानीय जलवायु व भौगोलिक परिस्थितियों पर ज्यादा निर्भर करती है न कि धर्म के आधार पर वह तय की जाती है परन्तु यह भी सच है कि भारत में मुस्लिम कट्टरवाद की उपज इसके उत्तर भारत में बने इस्लामी विचारों के स्कूल स्थित होने की वजह से ही हुई जैसे कि बरेलवी व देवबन्दी। इसमें से देवबन्दी स्कूल के विचारक उदारवादी माने गये और इन्होंने भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में मुस्लिम लीग का विरोध किया और कांग्रेस का समर्थन किया परन्तु दोनों ही स्कूलों के उलेमाओं ने कभी भी मुस्लिम समाज में सुधार लाने का कोई न तो आन्दोलन चलाया और न ही उन्हें धार्मिक दायरे से ऊपर उठ कर मूल मानवीय व व्यक्तिगत अधिकारों के बारे में सजग किया।
बरेलवी स्कूल के मौलानाओं का तो पाकिस्तान पर कब्जा सा है और हम देख रहे हैं कि वहां के मदरसों को किस तरह आतंकवादियों की जमात पैदा करने वाले संस्थानों में बदला जा रहा है। मगर इसके बावजूद भारत में मुस्लिम सम्प्रदाय के लोग विभिन्न क्षेत्रों में अपनी इच्छा शक्ति के आधार पर आगे बढ़ रहे हैं। जिसमें अपनी लड़कियों को शिक्षा देना एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। इंडियन इंस्टीट्यूट आफ दलित स्टडीज के खालिद खान के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (नैशनल सैम्पल सर्वे) के दो सर्वेक्षणों के आंकड़ों का अध्ययन करते हुए नतीजा निकाला कि 2006-07 में जहां मुस्लिम छात्राएं उच्च शिक्षा के क्षेत्र में केवल 6.7 प्रतिशत थी वहीं 2017-18 में बढ़ कर 13.5 हो गईं। जबकि इस अवधि में हिन्दू महिलाओं की संख्या 13.4 प्रतिशत से बढ़ कर 24.3 हो गई। उच्च शिक्षा में मुस्लिम विद्यार्थियों की संख्या में दुगनी से अधिक वृद्धि  होने का सीधा मतलब है कि विद्यालय स्तर अर्थात इंटरमीडियेट तक की कक्षाओं में मुस्लिम छात्राओं की संख्या में गुणात्मक वृद्धि हुई होगी। यह इस बात का संकेत है कि मुस्लिम समाज में चेतना व जागरूकता दोनों ही आ रही हैं।
 जाहिर है कि धार्मिक ठेकेदारों को यह कहीं खटक रहा होगा जिसकी वजह से वे लड़कियों की शिक्षा में धर्म को बाधा बनाना चाहते हैं और उन्होंने हिजाब को एक अस्त्र के रूप में प्रयोग करने का तरीका निकाला है। दरअसल उत्तर प्रदेश तक में यह परंपरा है कि मुस्लिम छात्राएं अपने विद्यालय या स्कूल तक तो हिजाब लगा कर जाती हैं परन्तु विद्यालय में प्रवेश करते ही इसे उतार देती हैं और अपनी कक्षाओं में अन्य विद्यार्थियों के साथ निश्चित पोशाक में ही बैठती हैं। जब तक वे छात्राएं स्कूल के दायरे से बाहर हैं तो वह अपनी धार्मिक पहचान कायम रखती हैं परन्तु स्कूल में प्रवेश करते ही वह उस स्कूल की अनुशासित विद्यार्थी हो जाती हैं। कर्नाटक में सवाल यही खड़ा हुआ था कि कक्षा के भीतर या स्कूल के भीतर छात्राएं हिजाब क्यों लगायें। विद्यालय के भीतर धर्म की पहचान को अव्वल क्यों बनाया जाये?
वैसे भी भारत की जलवायु को देखते हुए हिजाब का क्या औचित्य हो सकता है क्योंकि यह अरबी देशों के लोगों का पहनावा वहां की धूल-धक्कड़ की जलवायु की वजह से हैं। क्या जरूरी है कि हम भारत में हर सामाजिक दायरे में अपनी धार्मिक पहचान को ऊपर रखें जबकि भारत का संविधान किसी भी नागरिक की धार्मिक पहचान के आधार पर कोई फैसला करने की इजाजत नहीं देता। भारत का संविधान तो हर धर्म की स्त्री को एक समान अधिकार किसी पुरुष के बराबर ही देता है। फिर महिलाओं को ही क्यों धार्मिक नियमों में बांध कर उन्हें यह एहसास कराया जाये कि उनका वजूद केवल पितृ सत्तात्मक व्यवस्था में ही सुरक्षित रह सकता है। महिलाओं के आर्थिक रूप से सम्पन्न होने पर क्या मुस्लिम मुल्ला-मौलवियों को ऐतराज है। 
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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