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राजनीति में विनोद व कर्कशता

राजनीति में कर्कश शब्दों का चलन वर्तमान दौर का नियम सा बनता जा रहा है।

राजनीति में कर्कश शब्दों का चलन वर्तमान दौर का नियम सा बनता जा रहा है। व्यंग्य-विनोद का स्थान कर्कशता ने कैसे लिया इसकी खोज बेशक कुछ गम्भीर चिन्तक करेंगे मगर सवाल यह है कि सियासत को लगातार नीरसता की तरफ खींचने में आज के दौर के राजनीतिज्ञों की क्या भूमिका हो सकती है। लोकतन्त्र में अपने विरोधी पर हमला करने के लिए तीखे तीर जैसे सीधे शब्दों का इस्तेमाल करना जरूरी नहीं होता है। व्यंग्य या विनोद के माध्यम से कठोर राजनैतिक सिद्धान्तों की व्याख्या करने से इतर जब विरोधी की आलोचना की जाती है तो उसके लिए सभ्य व्यंग्यात्मकता सबसे ज्यादा असरदार होती है। स्वतन्त्र भारत में दो ऐसे  विशिष्ट राजनीतिज्ञ हुए हैं जो व्यंग्य-विनोद के माध्यम से विरोधी पक्ष की कटु आलोचना बिना कोई रंजिश पैदा किये करने में सिद्ध हस्त माने जाते थे। वे भाजपा के स्व. अटल बिहारी वाजपेयी व स्वतन्त्र पार्टी के स्व. पीलू मोदी थे। मगर पीलू मोदी कई मायनों में कई बार स्व. वाजपेयी पर भी भारी पड़ जाते थे। 
1969 में संविद सरकारों के पतन के बाद 1969 में इनकी विधानसभाओं के चुनाव हुए। दोनों ही नेता शालीनता की प्रतिमूर्ति भी माने जाते थे।  उत्तर प्रदेश में भी चुनाव हो रहे थे। इस अवसर पर आयोजित जनसभाओं में तब के जनसंघ के नेता स्व. वाजपेयी अपनी जनसभाओं में तीसरी पंचवर्षीय योजना का जिक्र करने से नहीं चूकते थे जो कि 1962 के चीनी आक्रमण और 1965 के पाकिस्तानी आक्रमण की वजह से अधर में लटकी हुई थी। श्री वाजपेयी इस सन्दर्भ में अपने भाषण में कहते थे कि ‘‘हम कहते हैं कि पंचवर्षीय योजना का प्रारूप सार्वजनिक करो, वे कहते हैं कि योजना ‘प्रसव’ में है। हम कहते हैं कि इसे बाहर खींचों वे कहते हैं कि दर्द होता है। मित्रों हम जानना चाहते हैं कि सरकार पांच सालों के भीतर विकास का क्या खाका खींचना चाहती है’। जब स्व. पीलू मोदी ने स्व. वाजपेयी का यह भाषण पढ़ा तो उन्होंने वाजपेयी को खत लिखा और उसमें कहा कि आप स्त्री की प्रसव पीड़ा का उपहास करना बन्द करें। यह अनुचित है। वाजपेयी जी ने इसे तुरन्त स्वीकार कर लिया। मगर इन्हीं चुनावों में उत्तर प्रदेश में स्व. चौधरी चरण सिंह ने अपनी नई पार्टी भारतीय क्रान्ति दल भी बनाई थी और पूरे राज्य में इस पार्टी की हवा चल रही थी। उस समय चौधरी साहब की उम्र 67 साल थी।  इससे पिछले चुनाव 1967 में उत्तर प्रदेश में जनसंघ मुख्य विपक्षी दल बनकर उभरी थी और इसके 101 विधायक चुनकर आये थे।  स्व. चरण सिंह की लोकप्रियता का अन्दाजा लगाते हुए स्व. वाजपेयी ने कटाक्ष किया कि ‘चौधरी साहब बूढे़ हो गये हैं और अब करेंगे क्रान्ति। पार्टी का नाम रखा है ‘भारतीय क्रान्ति दल’। भाइयो भारतीय जनसंघ को आपने पिछले चुनावों में अपना प्यार और स्नेह दिया था। इसे जारी रखिये’’। चौधरी साहब ने इस आलोचना का उत्तर नहीं दिया और अपना चुनाव प्रचार अपने तरीके से जारी रखा। चुनाव परिणाम जब आये तो जनसंघ को 47 सीटें मिलीं और भारतीय क्रान्ति दल को 117 इसी प्रकार जब 1971 में इन्दिरा गांधी की आंधी ने पूरे विपक्ष को केवल ‘गरीबी हटाओ’ नारे की बदौलत धूल चटा दी तो दिल्ली के चांदनी चौक में नई सड़क के चौराहे पर विपक्षी पार्टियों की एक जनसभा हुई। इसमें स्व. पीलू मोदी व वाजपेयी दोनों ने शिरकत की। पीलू मोदी टूटी-फूटी बम्बइया हिन्दी जानते थे। वह पारसी थे। यह सभा इन्दिरा सरकार के खिलाफ हुई थी। इसमें पीलू मोदी ने अपना पाइप मंच पर ही एक तरफ रखते हुए भाषण दिया। उन्होंने कहा कि ‘‘इन्दिरा गांधी ने हमसे वादा किया कि गरीबी हटाओ। गरीबी हटा नहीं मगर गरीब हट गया। हम मांग करता है कि हमको हमारा गरीबी वापस करो’’। इस पर जनता ने भारी ठहाका लगाया। स्वयं वाजपेयी भी खुलकर हंसने लगे और बाद में उन्होंने श्री पीलू मोदी का यह वाक्य अपने भाषणों का हिस्सा बना लिया। श्री मोदी ने इन्दिरा जी  की आलोचना की पराकाष्ठा भी कर डाली और स्वयं को किसी नुक्ताचीनी से भी बचा लिया। स्वयं प्रधानमन्त्री रहते हुए इन्दिरा जी भी इस पर कुछ नहीं बोल सकीं। अतः राजनीति में व्यंग्य-विनोद की क्षमता विरोधी को निरुत्तर कर देने तक की होती है। आज के राजनीतिज्ञ कर्कशता के साथ उपहास परक शब्दों का इस्तेमाल करने लगे हैं जिसकी वजह से प्रतियोगिता रंजिश में बदल जाती है। जबकि विनोद (ह्यूमर) प्रेम बढ़ाता है। व्यंग्य विनोद व कर्कशता में यही अन्तर होता है। कर्कशता ‘गाली’ जैसी दिखती है और विनोद के शब्द ‘फूल’ जैसे बन जाते हैं।  इसी प्रकार कांग्रेस में भी ऐसे नेता हुए जो व्यंग्य-विनोद में माहिर थे। इनमें स्व. बाबू गोविन्द सहाय का नाम सर्वोपरि था। वह जनसंघ की आलोचना में कहते थे कि ‘‘ये जनसंघी पाकिस्तान में भी हैं। वहां ये कहते हैं कि यह कैसा पाकिस्तान है जिसमें न तो ताजमहल है और न लालकिला। हमारी राजनीति की विरासत इतनी छोटी नहीं है कि हम सीधे तीखे तीर ही चलाने लगे। ‘फूलों के तीरों’ से भी विरोधी को चित्त किया जा सकता है। इसे भाजपा भी समझे और कांग्रेस भी। मैं यहां किसी नेता का नाम नहीं ले रहा हूं, केवल इशारों में बात कर रहा हूं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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