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भारत-पाक महासंघ का विचार

भारत की आजादी के कुछ ही वर्ष बाद समाजवादी नेता व चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया ने विचार रखा कि एक समान भारतीय संस्कृति के वाहक भारत व पाकिस्तान देशों का एक महासंघ बनना चाहिए

भारत की आजादी के कुछ ही वर्ष बाद समाजवादी नेता व चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया ने विचार रखा कि एक समान भारतीय संस्कृति के वाहक भारत व पाकिस्तान देशों का एक महासंघ बनना चाहिए जिससे दोनों देश आपसी विवाद निपटाते हुए अपने-अपने देश की अवाम के आर्थिक व सामाजिक विकास का कार्य सामूहिक रूप से कर सके। उस समय इस प्रस्ताव का समर्थन भारतीय जनसंघ (भाजपा) के विचारक समझे जाने वाले नेता पं. दीनदयाल उपाध्याय ने भी किया। इसके बाद इस प्रस्ताव के समर्थन में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के महान विचारक व नेता प्रोफेसर एम.वी. कामथ ने भी समर्थन जुटाने का प्रयास किया परन्तु 29 अप्रैल 2004 को भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन शीर्षस्थ नेता श्री लाल कृष्ण अडवानी ने पाकिस्तान के अंग्रेजी अखबार ‘डान’  को दिये गये एक साक्षात्कार में जब इसी प्रस्ताव को जीवित करते हुए यह कहा कि ‘उनके विचार में भारत-पाक परिसंघ की कल्पना एक दिन अवश्य सच हो सकती है और एक दिन ऐसा जरूर आयेगा जब दोनों देश यह सोचेंगे कि बंटवारे से समस्याओं का अन्त नहीं होगा। अतः क्यों न देश एक साथ आकर कोई महासंघ या ऐसा ही कोई अन्य संगठन बना लें।’
श्री अडवानी उस समय देश के उपप्रधानमन्त्री थे और उन्होंने यह मत आधिकारिक तौर पर व्यक्त किया था। इससे पूर्व भारत की लोकसभा में भी पाकिस्तान के मुद्दे पर श्री अडवानी ने भारत-पाक महासंघ के डा. लोहिया के प्रस्ताव का जिक्र किया था। वर्तमान में जब कश्मीर में भारत की सेनाएं पाक समर्थित आतंकवादियों को साफ करने की मुहीम चला रही हैं तो आम हिन्दोस्तानी के दिमाग में यह बात उठ सकती है कि यदि जम्मू-कश्मीर में धारा 370 समाप्त करने के बावजूद खूनखराबा नहीं रुक रहा है और पाकिस्तान अपनी खूंरेज हरकतों से बाज नहीं आ रहा है तो इसका अन्य हल क्या होना चाहिए?
जाहिर है कि आजादी के बाद से अब तक भारत व पाकिस्तान के बीच चार बार युद्ध हो चुका है 1947, 1965, 1971 और 1999। मगर कश्मीर की समस्या जस की तस खड़ी हुई है और और दोनों देशों के बीच रंजिशी ताल्लुकात बने हुए हैं। मगर यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण है कि पाकिस्तान भारत से रंजिश क्यों मानता है जबकि 1947 से पहले उसकी सारी अवाम हिन्दोस्तानी ही थी। बंटवारा होने के बावजूद पाकिस्तान ने भारत के प्रति कभी निःस्वार्थ भाव से दोस्ती का हाथ नहीं बढ़ाया और हर चन्द कोशिश की कि वैर भाव समाप्त न हो। वस्तुतः यह वैर भाव दोनों देशों की अवाम की सांस्कृतिक एकता की कुर्बानी देकर बढ़ाया गया जिससे पाकिस्तान के वजूद की वजह बनी रहे। बेशक पाकिस्तान एक संप्रभु राष्ट्र है मगर भारतीय उपमहाद्वीप में सुख-शान्ति व समृद्धि बनाये रखने के उद्देश्य से पाकिस्तान यूरोपीय संघ जैसी नीति का अनुसरण करके भारत के साथ सभी विवाद इस प्रकार हल कर सकता है कि सेना का उपयोग ही निरर्थक लगने लगे परन्तु इस मार्ग में पाकिस्तान की फौज ही सबसे बड़ी बाधा है जो कश्मीर के नाम पर भारत और भारतीयों के विरुद्ध दुश्मनी का भाव जागृत रखना चाहती है। यह भाव पाकिस्तानी फौज धर्म मूलक हिन्दू-मुसलमान के रूप में बनाती रही है।
गौर करने वाला तथ्य यह है कि आजादी के बाद से अब तक युद्ध साजो-सामान पर पाकिस्तान ने खर्च किया है और उससे निपटने के लिए भारत को भी कितना खर्च करना पड़ा है? यदि यही पाकिस्तान ने अपने मुल्क की अवाम की तरक्की पर लगाया होता तो आज उसके हाथ में भीख का कटोरा न होता और चीन ने उसे अपना गुलाम जैसा न बनाया होता? हकीकत तो यही रहेगी कि पाकिस्तान कभी भी सैनिक मोर्चे पर भारत का मुकाबला नहीं कर सकता, बेशक पाकिस्तान ने भी परमाणु बम ही क्यों न बना लिया हो। इसलिए पाकिस्तान को सोचना होगा कि वह जिस रास्ते पर चल रहा है वह बर्बादी का रास्ता है क्योंकि चाह कर भी वह पाकिस्तान की उस हकीकत को नहीं बदल सकता जो भारतीयता के रंग से आज तक सराबोर है। यह हिन्दोस्तानियत वही है जो 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान थी जब हिन्दू-मुसलमानों ने मिलकर अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ जेहाद छेड़ा था।
भारत ने देश का बंटवारा होने के बावजूद पाकिस्तान की अवाम की भारतीयों के साथ रसूखदारी और दोनों मुल्कों की एक जैसी तहजीब के ख्याल से कोशिश की कि अलग हो जाने के बावजूद दोनों मुल्कों में अमेरिका और कनाडा जैसे सम्बन्ध रहें। यही वजह थी कि पाकिस्तान बनने के बाद वहां पहले उच्चायुक्त श्री श्रीप्रकाश भेजे गये थे और पाकिस्तान ने भारत में ही जन्मे एक कूटनीतिज्ञ को अपना उच्चायुक्त दिल्ली में मुकर्रर किया था। शुरू के कई वर्षों तक केवल परमिट लेकर नागरिक एक देश से दूसरे देश में चले जाते थे और यहां तक कि लाहौर में होने वाले क्रिकेट मैच का आनन्द भी ले लेते थे। भला कोई पूछे कि पाकिस्तान के पंजाब और भारत के पंजाब में क्या अन्तर है तो उत्तर यही मिलेगा कि पंजाबी संस्कृति दोनों तरफ एक समान रूप से अपने शबाब में रहती है।
धर्म अलग होने से सांस्कृतिक मूल्य किसी भी प्रकार नहीं बदल सकते हैं मगर इसके बावजूद पाकिस्तान सिर्फ मजहब की सियासत करके अपने लोगों को यह समझाना चाहता है कि पाकिस्तान भारत का दुश्मन है। इसी वजह से उसने कश्मीर को ऐसा  मुद्दा बना रखा है जिससे दोनों देशों के बीच रंजिश जारी रहे। जबकि कश्मीर के मामले बहुत साफ है कि पूरा कश्मीर (पाक अधिकृत कश्मीर समेत) एक है और विधि संगत तरीके से इसका भारत में विलय हो चुका है। भारत-पाक महासंघ के विचार में इन सभी समस्याओं का अन्तिम हल इस प्रकार निहित हो सकता है कि दोनों देश मिलकर अपनी जमीनी ताकत को आवाज देते हुए दुनिया में सिर उठा कर चलें। जब यूरोप के सभी देश मिल कर अपनी पहचान अलग-अलग कायम रखते हुए एक इकाई के रूप में अपने सर्वांगीण विकास के मार्ग खोज सकते हैं तो पाकिस्तान क्यों नहीं अपनी अवाम की भलाई के लिए इस रास्ते पर आगे बढ़ सकता और अपने सिर से आतंकवादी देश होने की तोहमत को क्यों नहीं दुत्कार सकता।

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