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भारत, पाकिस्तान और अमेरिका

यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि पाकिस्तान निर्माण के पीछे पश्चिमी शक्तियों की बहुत बड़ी भूमिका रही है।

यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि पाकिस्तान निर्माण के पीछे पश्चिमी शक्तियों की बहुत बड़ी भूमिका रही है। 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्त होने पर जब भारत पर कब्जा किये हुए ब्रिटेन की शक्ति इतनी कम हो गई कि इसकी फौजों की तनख्वाहें भी अमेरिकी खजाने से अदा की जाने लगीं तो अमेरिका ने ही दबाव डाला कि भारत को जल्द से जल्द स्वतन्त्रता दे दी जानी चाहिए। अतः अंग्रेजों द्वारा भारत को बजाय पूर्व घोषित 1948 में आजाद करने के 15 अगस्त 1947 को ही आजादी देने की घोषणा कर दी गई परन्तु इसे दो देशों मे तकसीम करने की योजना भी उन्होंने अपने हितों को सुरक्षित करने की दृष्टि से तैयार कर ली और मुहम्मद अली जिन्ना की मार्फत उसे लागू भी कर दिया। अंग्रेजों की सोच थी कि सोवियत संघ की सीमाओं के बहुत करीब होने की वजह से पंजाब को काट कर बनाया गया पाकिस्तान मध्य एशिया व आस्ट्रेलिया के प्रशासन क्षेत्र उनके लिए लाभकारी होगा और ऐसे उभय पक्षीय देश (बफर स्टेट) के रूप में होगा जिसका उपयोग भारत जैसे विशाल देश का भविष्य सन्तुलित करने के लिए किया जा सकेगा। प्रारम्भ मे अमेरिका भारत के विभाजन के विरुद्ध था, परन्तु बाद में ब्रिटेन के इस तर्क को उसने स्वीकार कर लिया। अमेरिका चीन के बढ़ते प्रभाव की वजह से भारत को एक गैर कम्युनिस्ट ताकत के रूप में मजबूत भी देखना चाहता था परन्तु पाकिस्तान के निर्माण होने से इसके कट्टरपंथी इस्लामिक स्वरूप को उसने भी पश्चिम व मध्य एशिया में उपयोगी देश माना। अतः हम देखते हैं कि भारत के स्वतन्त्र होने के बाद से ही अमेरिका समेत पश्चिमी देशों का झुकाव हमेशा पाकिस्तान की तरफ रहा है और इसे सामरिक रूप से शक्तिशाली बनाने में उन्होंने हरसंभव मदद दी है। परन्तु सोवियत संघ के 1990 मे बिखर जाने और इसी के समानान्तर अफगानिस्तान में तालिबान शासन के उदय के बाद वैक रणनीति बदलने लगी और 1998 मे  भारत व पाकिस्तान दोनों ही देशों द्वारा परमाणु परीक्षण किये जाने के बाद इसमें और गुणात्मक अन्तर आने लगा। इस बीच पाकिस्तान स्वयं आतंकवाद की जर-खेज जमीन बनता चला गया और अमेरिका में न्यूयार्क में वर्ल्ड ट्रेड टावर को अलकायदा जैसे आतंकवादी संगठन द्वारा ध्वस्त किये जाने के बाद अमेरिका व पश्चिमी देशों ने पाकिस्तान को निगरानी सूची में डालना शुरू कर दिया। मगर पाकिस्तान की रणनीतिक स्थिति से इनका मोह नहीं छूटा और आतंकवाद को समाप्त करने के नाम पर इन्होंने पाकिस्तान को सैनिक व असैनिक इमदाद देना जारी रखा। दर असल पाकिस्तान का वजूद ही इन्हीं ताकतों के भरोसे पिछले 75 सालों से बना हुआ है, वरना पाकिस्तान 1958 के आते– आते ही बिखर जाता और इसका वजूद मिट जाता, मगर उस समय पाकिस्तान में सैनिक विद्रोह कराकर सत्ता पर जनरल अयूब को लाया गया जिसका खुलकर स्वागत उस समय पाकिस्तानी जनता ने किया था। जनरल अयूब फौजी हुक्मरान होने के बावजूद पाकिस्तान के अभी तक के सबसे सफल व समाज सुधारक शासक साबित हुए और उन्हें अमेरिका ने खुले हाथों से मदद करने में कोई कमी नहीं की। उन्होंने इस्लामी रुढि़वादी घरेलू कानूनों को भी ढाल बनाया और आधुनिक शिक्षा की तरफ भी ध्यान दिया और आर्थिक रूप से पाकिस्तान को विदेशी मदद से निवेश का केन्द्र बनाने की कोशिश भी की। इसमें बहुत से लोगों को आश्चर्य होगा कि पाकिस्तान की विकास वृद्धि दर उनके जमाने मे भारत की विकास वृद्धि दर से दुगनी तक हो गई थी परन्तु 1965 का भारत के साथ अकारण युद्ध करके उन्होंने स्वयं ही अपना सत्यानाश कर लिया और इसके बाद पाकिस्तान ने कभी आगे बढ़ कर नहीं देखा। इसके बाद रही–सही कसर 1971 में पूरी हो गई और पाकिस्तान दो टुकड़ों में बंट गया और बंगलादेश बन गया। अमेरिका यह तमाशा देखने पर मजबूर रहा क्योंकि भारत के साथ सोवियत संघ जैसी ताकत खड़ी हुई थी। इसी युद्ध के दौरान पाक अधिकृत कश्मीर का भी स्व. इन्दिरा गांधी तिया–पांचा करने की योजना पर बढ़ रही थीं मगर अमेरिका ने बंगाल की खाड़ी में एटमी सातवां जंगी जहाजी बेड़ा खड़ा करके परमाणु युद्ध की धमकी दे रखी थी। अतः पाक अधिकृत कश्मीर का कुछ इलाका ही उस समय भारत मंे मिलाया जा सका। मगर वर्तमान में अमेरिका ने पाकिस्तान को एफ-16 लड़ाकू विमानों की खेप दी है जिसकी कीमत 4500 लाख डालर की है। भारत ने इस मदद पर एतराज किया है और विदेश मन्त्री एस. जय शंकर ने बेबाक तरीके से कहा है कि ‘हम जानते हैं कि इसका उपयोग कहां होगा’। परन्तु इसके बावजूद भारत -अमेरिका के संबन्ध नई मधुरता की श्रेणी के बताये जा रहे हैं। इसकी कई वजहें हैं । एक तो चीन का भारत के प्रति कशीदगी भरा रवैया और सीमाओं पर तनाव जबकि अमेरिका का चीन के प्रति उसकी विस्तारवादी नीतियों के विरुद्ध दो टूक रुख। दूसरे रूस- युक्रेन संघर्ष में भारत की संजीदा भूमिका । रूस भारत का परखा  हुआ सच्चा दोस्त है, मगर युक्रेन के मामले में वह अन्तर्राष्ट्रीय नियमों की हुई अवहेलना को नजर अन्दाज भी नहीं कर सकता है, यही वजह है कि भारत राष्ट्रसंघ मे  सन्तुलनकारी कदम उठाता है। मगर जहां तक पाकिस्तान का सम्बन्ध है तो भारत किसी भी मुद्दे पर लचीला रुख रखने के पक्ष में नहीं है क्योंकि भारतीय उपमहाद्वीप में पाकिस्तान की भूमिका शुरू से ही आक्रमणकारी की है। कमोबेश यही स्थिति चीन की भी है औऱ अब ये दोनों देश घी–शक्कर हो रहे हैं । इसलिए भारत का अमेरिका के प्रति मित्रता भाव स्वाभाविक प्रक्रिया है। मगर भारत अमेरिका पर आंखे मूंद कर रूस की तरह यकीन भी नहीं कर सकता है क्योंकि अमेरिका का पिछला रिकार्ड बहुत दुख देने वाला भी रहा है। 
तू दोस्त किसी का भी सितमगर न हुआ था।
औरों पे है वो जुल्म जो मुझ पर न हुआ था।।

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