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It’s My Life (45)

अंग्रेजी के सुप्रसिद्ध साप्ताहिक ‘इलस्ट्रेटेड वीकली’ के 12 नवम्बर के अंक में जम्मू-कश्मीर के प्रमुख नेता श्री शमीम अहमद शमीम का एक लेख-‘शेख अब्दुल्ला-दैन एंड नाओ’ (Sheikh Abdulla Then and Now) के शीर्षक से छपा है।

शेख साहब! देशवासी स्पष्टीकरण चाहते हैं
अंक-20 नवम्बर 1978
अंग्रेजी के सुप्रसिद्ध साप्ताहिक ‘इलस्ट्रेटेड वीकली’ के 12 नवम्बर के अंक में जम्मू-कश्मीर के प्रमुख नेता श्री शमीम अहमद शमीम का एक लेख-‘शेख अब्दुल्ला-दैन एंड नाओ’ (Sheikh Abdulla Then and Now) के शीर्षक से छपा है। इस लेख में शेख अब्दुल्ला के आवरण का उल्लेख करते हुए श्री शमीम लिखते हैं- “विगत 22 वर्षों के दौरान शेख का आचरण उनके अनेक बयान और भाषण तथा इंटरव्यू आदि यह सिद्ध करते हैं कि यद्यपि उनकी गिरफ्तारी दुर्भाग्यपूर्ण थी, परंतु इसके अतिरिक्त और कोई चारा नहीं था तथा इसे टाला नहीं जा सकता था। 
पार्टी और सरकार में उनके साथियों का उन पर से विश्वास उठ जाना, केंद्रीय सरकार और उसके ​नेताओं के प्रति उनका शत्रुतापूर्ण रवैया, उनके अत्यंत अनुचित और उत्तेजनापूर्ण भाषण इन सबकी तब तक उपेक्षा की जाती रही जब तक कि यह पता नहीं चल गया कि ये सब बातें ‘एक बड़े गलत इरादे’ का हिस्सा हैं। वह केंद्र सरकार के साथ युद्ध के मार्ग पर चल रहे थे, अपने हर वायदे को तोड़ रहे थे और केंद्र के साथ हुए हर समझौते को चुनौती दे रहे थे। अपनी पहली रिहाई के बाद 7 फरवरी,1958 को जामिया मस्जिद श्रीनगर में जनमत संग्रह कराने की मांग करते हुए उन्होंने कहा था कि जब 9 अगस्त 1953 को मुझे गिरफ्तार किया गया था तो मुझ पर अमरीकियों के साथ षड्यंत्र करने का आरोप लगाया गया था। 
अब बख्शी गुलाम मोहम्मद कहते हैं कि मुझे इसलिए गिरफ्तार किया गया था क्योंकि मैंने कश्मीर के भारत में विलय को चुनौती दी थी, उसके अंतिम होने पर आ​पत्ति की थी और जनमत संग्रह कराए जाने की मांग की थी। मैं कहता हूं कि यदि षड्यंत्र करने की बजाय मुझ पर यह ‘पाप’ करने के आरोप लगाए गए होते तो मैं पहले ही स्वयं को दोषी मानकर इन आरोपों को स्वीकार कर लेता। विलय को चुनौती देने और जनमत संग्रह की मांग करने के आधार पर शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी और बर्खास्तगी वैधानिक थी या नहीं और लोकतांत्रिक दृष्टि से उचित थी या नहीं, यह एक बहस का विषय है परंतु ऐसा किया जाना अनिवार्य था, यह बात स्वयं शेख अब्दुल्ला ने सिद्ध कर दी है। 
केवल रियासत के विलय को स्वीकार कर लेने और जनमत संग्रह की मांग छोड़ देने पर ही श्रीमती इंदिरा गांधी ने फरवरी 1975 में रियासत की वह गद्दी तश्तरी में रखकर शेख साहब को पेश कर दी जो 1953 में उनसे छीन ली गई थी। जमीयत के एक एम.एल.ए. को शेख साहब की ओर से यह झाड़ पिलाया जाना कि भारत में कश्मीर का विलय स्वीकार न करने के लिए उसको परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए, यह सिद्ध करता है कि शेख साहब को सबक मिल गया है। इससे उनके उन तमाम पुराने साथियों अर्थात बख्शी साहब, सादिक साहब, कासिम साहब और डी.पी. धर का सम्मान बढ़ा है जिनको 1953 में शेख साहब ने ‘गद्दार’ की संज्ञा दी थी। 
मिर्जा अफजल बेग के पतन और उन पर षड्यंत्र करने के आरोप लगाए जाने के बाद शेख साहब ने अपने पिछले साथियों पर अपने विरुद्ध  षड्यंत्र  करने का आरोप लगाया है।  षड्यंत्र  की यह विचित्र धारणा किसी भी तानाशाह में बढ़ती हुई असुरक्षा की भावना की द्योतक है और शेख अब्दुल्ला इससे सदा पीड़ित रहे हैं। रिसायत के भविष्य के बारे में शेख के विचार 1950 से ही भिन्न रहे हैं और इसका प्रमाण एक अत्यंत अप्रत्याशित सूत्र से मिला है। भारत में तत्कालीन अमरीकी राजदूत हैंडरसन के कुछ पत्र हाल ही में छपे हैं। इनमें से कुछ में शेख अब्दुल्ला से उनकी बातचीत का भी हवाला है। 
29 सितम्बर 1950 के अपने पत्र में हैंडरसन लिखते हैं, ‘‘जब मैं कश्मीर में था तो कश्मीर के प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला से उनके अनुरोध पर मेरी दो बार गुप्त वार्ता हुई। इस बातचीत में पूरी तरह खुलकर उन्होंने मुझे कश्मीर के भविष्य के बारे में अपने विचार और अपनी कुछ समस्याएं बताईं। उन्होंने  पूरा जोर देकर इस बात को गलत बताया कि वह प्रो-कम्युनिस्ट, प्रो- सोवियत, पश्चिम विरोधी या अमरीका विरोधी हैं।’’आगे चलकर हैंडरसन लिखते हैं कि कश्मीर के भविष्य पर बातचीत करते हुए शेख अब्दुल्ला ने रह-रहकर यह बात कही कि उनके विचार में कश्मीर स्वतंत्र होना चाहिए, रियासत की भारी बहुसंख्या यह स्वतंत्रता चाहती है और उन्हें विश्वास है कि ‘आजाद कश्मीर’ के नेता भी इस ​विचार से सहमत होंगे और इस मामले में हमें सहयोग देंगे। 
उनका कहना था कि कश्मीर के लोग यह बात समझ नहीं पा रहे हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ कश्मीर समस्या के एक संभावित समाधान के रूप में स्वतंत्रता की उपेेक्षा क्यों कर रहा है।  उसने फिलस्तीन की स्वतंत्रता के लिए विशेष बैठक बुलाई थी हालांकि वह क्षेत्र और जनसंख्या दोनों ही दृष्टि से कश्मीर से छोटा है। कश्मीर के लोगों की अपनी भाषा और संस्कृति है। कश्मीर के हिंदू भारत के हिंदुओं से और  कश्मीर के मुसलमान पाकिस्तान के मुसलमानों से सर्व​था भिन्न हैं। जब मैंने उनसे यह पूछा कि क्या कश्मीर भारत और  पाकिस्तान के मैत्रीपूर्ण सहयोग के बगैर एक स्वतंत्र देश के रूप में स्थिर रह सकेगा तो शेख अब्दुल्ला ने नकारात्मक उत्तर दिया।
 उनकी राय में स्वतंत्र कश्मीर उसी हालत में जीवित रह सकता है जब भारत और पाकिस्तान दोनों से ही उसकी मैत्री हो, भारत और पाकिस्तान की भी आपस में मैत्री हो और  संयुक्त राष्ट्र संघ विकास के लिए उसे समुचित आर्थिक सहायता दे। भारत के साथ कश्मीर के लोगों की सम्बद्धता निकट भविष्य में कश्मीर के लोगों के दुख दूर नहीं कर पाएगी। भारत में बहुत से क्षेत्र ऐसे हैं ज​हां आ​र्थिक विकास किए जाने की आवश्यकता है इसलिए उन्हें विश्वास है कि कश्मीर के विकास पर अपेक्षाकृत कम ध्यान दिया जाएगा। 
अलबत्ता कश्मीर के लिए पाकिस्तान की बजाय भारत के साथ रहना अधिक अच्छा है। कश्मीरियों के लिए एक पुराने कुरानवादी दृष्टिकोण के शासन तले चले जाना विनाशकारी होगा। श्री शमीम अहमद शमीम के इस लेख पर मैं अपनी ओर से कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता, केवल इतना ही लिखना चाहता हूं कि यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण मामला है और देश की जनता इस पर शेख साहब से स्पष्टीकरण चाहती है।आशा की जानी चाहिए कि शेख साहब अविलम्ब अपना स्पष्टीकरण देंगे ताकि जाे संदेश और शंकाएं श्री शमीम के इस रहस्योद्घाटन से लोगों के मन में उत्पन्न हो गई हैं वे दूर हो सकें।

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