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लोकतन्त्र सदैव जीवन्त रहे !

संसद के नये भवन का श्री गणेश महिला आरक्षण विधेयक के पेश होने से हो गया है मगर इससे पहले पुराने संसद भवन के सेंट्रल हाल में जो समारोह हुआ उसमें यह साफ हो गया कि भारत के लोकतन्त्र का नया चरण नई सजावट के साथ शुरू हो रहा है। कुछ लोग इस बात पर आपत्ति कर सकते हैं कि नये संसद भवन से लोकतन्त्र के नये चरण का क्या मतलब? वास्तव में उनका तर्क सही भी है क्योंकि भारत का संसदीय लोकतन्त्र किसी इमारत का मोहताज नहीं हो सकता क्योंकि महात्मा गांधी अपने लम्बे जन संघर्ष के दौरान लोकतन्त्र को भारत के आम लोगों के रक्त में घोल कर गये हैं। भारत की गांव की माटी से लेकर ऊंची अट्टालिकाओं से सजे शहरों तक में लोकतन्त्र न केवल बोलता है बल्कि कई सुरों में गाता भी है। यह गरीब की झोपड़ी से लेकर रईसों के महलों तक में विद्यमान रहता है और इस प्रकार रहता है कि हर मिल मालिक को अपनी कमाई में से मजदूरों को लाभांश देने के लिए मजबूर होना पड़ता रहा है। बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का दौर शुरू होने के बाद इसमें कमी जरूर आयी है मगर इस देश का हर मजदूर और दस्तकार व कर्मचारी इस हकीकत से वाकिफ हो चुका है कि इस देश के निर्माण में उसकी भी हिस्सेदारी कम नहीं है।

संसद के नये भवन निर्माण को लेकर भी कोई कम राजनैतिक छींटाकशी नहीं हुई है लेकिन यह सवाल भी अपनी जगह बना हुआ है कि क्या इमारत बदल जाने से हमारी संसद की कार्यवाही का गिरता स्तर भी ऊपर उठ जायेगा? संसद की कार्यवाही में किस कदर गिरावट आयी है कि महत्वपूर्ण विधेयक भी बिना बहस कराये ही भारी शोर-शराबे के बीच पारित होने लगे हैं। इससे कहीं न कहीं आम जनता में संसदीय प्रणाली की प्रासंगिकता के बारे में नकारात्मक भाव पैदा होने का खतरा पैदा होता है। भारत को दुनिया भर में सबसे बड़ा संसदीय लोकतन्त्र माना जाता है। लोकसभा में विपक्ष के अनौपाचारिक नेता कांग्रेस पार्टी के श्री अधीर रंजन चौधरी ने लोकसभा में यह प्रश्न उठा कर कि वर्तमान लोकसभा का कार्यकाल अब अवसान की तरफ जा रहा है और अभी तक इसके पास उपाध्यक्ष तक नहीं है, बताता है कि हम संसदीय प्रणाली को ही कितने हल्के में ले रहे हैं। प्रायः अधीर जी की बात को गंभीरता से नहीं लिया जाता है मगर उन्हें नई लोकसभा के पटल पर पहले दिन ही यह गंभीर सवाल उठा कर खुद को भी समय के अनुरूप ऊंचा उठने का परिचय तो दे ही दिया है।

नए संसद भवन में इस बात पर भी गंभीर रूप से विचार होना चाहिए कि जिस संसद का सत्र साल भर में कम से कम 100 दिन करने की निश्चय करके हम चले थे और अब केवल बामुश्किल 56 दिन पर ही क्यों पहुंचे हैं और कैसे पहुंचे हैं? संसद की नई इमारत में हमें कुछ नये निश्चय भी करने चाहिए जिससे लोगों में संसद के प्रति अटूट विश्वास बना रहे। संसद की कार्यवाही का हम टीवी पर सीधा प्रसारण तो करते हैं मगर इसका पक्ष वह कमजोर कर देते हैं जो असहमति या मतभिन्नता का होता है। संसद के सभी सदस्यों खास कर लोकसभा के 545 सदस्यों में से 543 सदस्यों का चुनाव सीधे आम जनता अपने एक वोट के पवित्र संवैधानिक अधिकार के माध्यम से करती है। इसमें सत्ता एवं प्रतिपक्ष के सभी सदस्य होते हैं। अतः संसद में पहुंच कर उसके द्वारा चुने गये सदस्य क्या करते हैं और उनका आचरण कैसा रहता है, यह जानने का उन्हें पूरा अधिकार रहता है। अतः राज्यसभा के सभापति और लोकसभा के अध्यक्ष को इस ओर ध्यान देना चाहिए जिससे हमारा लोकतन्त्र सर्वथा और हमेशा सजीव व जीवन्त बना रहे।

राजनैतिक लोकतन्त्र में सदैव जीवन्तता बनाये रखने की जिम्मेदारी प्रतिपक्ष की ही होती है क्योंकि उसके ही कार्यों से संसद की प्रासंगिकता इस प्रकार बनी रहती है कि सर्वत्र सरकार द्वारा किये जाने वाले कार्य जन-चर्चा का विषय बनते हैं। यह परिस्थिति सरकार के खिलाफ कभी नहीं होती क्योंकि इसी जन-चर्चा से जन विमर्शों की उत्पत्ति होती है। अतः संसद के नये भवन से नयी जनोन्मुखी संसदीय कार्यवाही की शुरूआत भी होनी चाहिए। संसद का मुख्य काम आम लोगों को अधिकाधिक सशक्त बनाने का होता है। यह काम वह विचार-विमर्श के बाद महत्वपूर्ण निर्णय करने के साथ ही लेती है। जिस प्रकार महिला आरक्षण विधेयक पर चर्चा के बाद जो फैसला होगा उससे देश की आधी आबादी को नया बल मिलेगा और नीतिगत निर्णयों में उसकी हिस्सेदारी सुनिश्चित होगी। संसद की नई इमारत में सभी पक्षों के सांसद यह भी पक्का अहद करें कि वे कोई भी विधेयक शोर-शराबे और हंगामे के बीच किसी भी कीमत पर पारित नहीं करेंगे। इसके साथ ही संसद की कार्यवाही में अधिकाधिक भाग लेने का मन्त्री से लेकर सांसद तक का कर्त्तव्य होगा। यह सच है कि संसद सदस्य पर बहुत सी जिम्मेदारियां भी होती हैं। उसे ये सारी जिम्मेदारियां संसद के चलते हुए सत्र के दौरान भी पूरी करनी पड़ती हैं। इसी सब को देखते हुए संसद सदस्य को लाखों लोगों का चुना हुआ प्रतिनिधि होने का गौरव प्राप्त होता है जिससे उसके काम के घंटों को गिनना निरी मूर्खता के अलावा और कुछ नहीं होता। मगर देश को बदलने वाले मुद्दों पर उसका गुम रहना या गूंगा बने रहना भी उतना ही हानिकारक होता है और उससे लोकतन्त्र मुरझाया सा दिखने लगता है। अतः नये भवन के साथ इरादे भी बुलन्द होने चाहिए और लोकतन्त्र को जीवन्त बनाये रखने के होने चाहिए।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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