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राजस्थान में वफादारी का दांव

कांग्रेस पार्टी में राजस्थान के नये मुख्यमन्त्री को लेकर जिस तरह की भीतरी खींचतान चल रही है उसमें कई चेहरे बेनकाब हो रहे हैं और कई ज्यादा जिम्मेदार बन कर निखर रहे हैं।

कांग्रेस पार्टी में राजस्थान के नये मुख्यमन्त्री को लेकर जिस तरह की भीतरी खींचतान चल रही है उसमें कई चेहरे बेनकाब हो रहे हैं और कई ज्यादा जिम्मेदार बन कर निखर रहे हैं। सबसे पहले यह समझा जाना चाहिए कि आज की कांग्रेस न तो इन्दिरा गांधी के जमाने की कांग्रेस है और न उसके बाद के 2004 से लेकर 2014 के समय की कांग्रेस है। हुकूमत में रहने वाली कांग्रेस के तेवर और विपक्ष में रहने वाली कांग्रेस के तेवरों में अन्तर आना बहुत स्वाभाविक प्रक्रिया है। मौजूदा दौर की कांग्रेस देश की राजनीति में अपने वजूद की लड़ाई लड़ रही है। इसलिए इसके व्यावहारिक कायदे वे नहीं हो सकते जो इसके हुकूमत में रहते हुए रहा करते थे। राजस्थान के मुख्यमन्त्री श्री अशोक गहलौत के पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए खड़े होने का एक मतलब यह है कि वर्तमान में नेहरू-गांधी परिवार के बाहर वह एेसे नेता हैं जो अपने संगठन कौशल व राजनैतिक सूझबूझ व पार्टी के प्रति वफादारी के बूते पर लगातार कमजोर होती जा रही कांग्रेस में नवजीवन का संचार कर सकते हैं। अतः उनकी इस क्षमता को कम करके आंकने की गलती किसी कांग्रेसी को नहीं करनी चाहिए।
दूसरे कांग्रेस के इस संकटकाल में सबसे ज्यादा महत्व पार्टी के प्रति वफादारी का पैदा होता है। दुनिया देख चुकी है कि किस तरह एक जमाने में राहुल ब्रिगेड के सदस्य कहे जाने वाले कथित युवा नेता एक-एक करके कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए हैं। इनमें ज्योतिरादित्य सिन्धिया से लेकर जितिन प्रसाद व आरपीएन सिंह के नाम प्रमुख हैं। श्री सचिन पायलट भी राहुल ब्रिगेड के सदस्य ही माने जाते थे मगर 2020 में उन्होंने भी कांग्रेस से बगावत करके राजस्थान में गहलौत सरकार गिराने के पूरे इन्तजाम बांध दिये थे। उनके इस कदम से पूरी कांग्रेस में जलजला आ गया था क्योंकि राजेश पायलट के बेटे से ऐसी अपेक्षा कोई कांग्रेसी नहीं कर सकता था। यह श्री गहलौत की राजनीतिक समझ और चाणक्य नीति थी कि सचिन पायलट का यह दांव बेकार गया और उनकी सरकार का बाल भी बांका नहीं हुआ, मगर पार्टी के वफादारों की पहचान हो गई।
2020 में कांग्रेस के जो विधायक श्री गहलौत के साथ चट्टान की तरह खड़े रहे थे, वे ही अब यह मांग कर रहे हैं कि यदि श्री गहलौत कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़ते हैं तो नया मुख्यमन्त्री 2020 के वफादार कांग्रेस विधायकों के बीच से ही बनना चाहिए। इसमें गलत क्या है? मगर कांग्रेस ने जिस व्यक्ति अजय माकन को राजस्थान पर्यवेक्षक बना कर भेजा वह म्युनिसपलिटी स्तर का राजनीतिज्ञ साबित हो जाये तो इसमें राजस्थान के वफादार विधायकों का क्या दोष? माकन साहब दिल्ली जैसे महानगर की राजनीति करते रहे हैं इस​िलए राजस्थान जैसे एेतिहासिक व विशाल राज्य की राजनैतिक गुत्थी समझाने के लिए उन्हें सबसे पहले अपनी जुबान पर काबू रखना चाहिए था और एक-एक शब्द नाप-तौल कर बाहर निकालना चाहिए था क्योंकि वह समस्या सुलझाने गये थे न कि नई समस्या पैदा करने। वफादार विधायकों का कहना था कि नये मुख्यमन्त्री का चुनाव 18 अक्तूूबर को कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव नतीजे आने के बाद होना चाहिए। इसमें कांग्रेस पार्टी के किस संविधान का उल्लंघन हो रहा था?  एक व्यक्ति-एक पद का सिद्धान्त तो सम्बन्धित व्यक्ति के किसी दूसरे पद पर चुने जाने के बाद ही लागू होगा। मगर माकन साहब ने कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव नतीजा गहलौत साहब के चुनाव में नामांकन पत्र भरने से पहले ही निकाल लिया और कह दिया कि 18 अक्तूबर को जब गहलौत अध्यक्ष बन जायेंगे तो वे राजस्थान विधानमंडल दल के उस प्रस्ताव पर कैसे फैसला कर पायेंगे जो आज ही इस रूप में पारित होगा कि सभी विधायक नये मुख्यमन्त्री का चुनाव कांग्रेस अध्यक्ष पर छोड़ते हैं।
दरअसल श्री माकन के साथ पर्यवेक्षक के रूप में उनके साथ राज्यसभा में विपक्ष के नेता श्री मल्लिकार्जुन खड़गे भी गये थे, मगर उन्होंने पूरी परिस्थिति को बहुत ही शालीन तरीके से पेश करते हुए इसे पार्टी के आन्तरिक लोकतन्त्र का मामला ही बताया। और हकीकत भी यही है क्योंकि कांग्रेस का तो यह इतिहास रहा है कि इसका भीतरी लोकतन्त्र बहुत ज्यादा खुल कर बोलने वाला रहा है। जो पार्टी 1966 में श्री लाल बहादुर शास्त्री की असामयिक मृत्यु के बाद प्रधानमन्त्री पद के लिए स्व. इन्दिरा गांधी व मोरारजी देसाई के बीच संसदीय दल के स्तर चुनाव करा सकती है, उसके लिए मुख्यमन्त्री का चुनाव कराना कौन सी बड़ी बात है। मगर माकन लकीर के फकीर बने हुए बोलते रहे कि राज्यों के विधायक तो कांग्रेस अध्यक्ष को ही उनका नेता चुनने का अधिकार देते रहे हैं। लोकतन्त्र के मायने यह कब से होने लगे कि विधानमंडल दल का नेता उनके बीच के बहुमत के अलावा बाहर से थोप दिया जाये। कांग्रेस के रसातल में जाने और क्षेत्रीय दलों के शक्तिशाली बनने के पीछे एक कारण यह भी रहा है कि स्व. इदिरा गांधी के दौर में राज्यों के मुख्यमन्त्री इस प्रकार बदले जाते थे जिस प्रकार किसी दफ्तर में पानी  पिलाने वाले को बदल दिया जाता है। अब कांग्रेस के पास कोई इन्दिरा गांधी नहीं है, इसलिए राज्यों में सशक्त नेतृत्व की सख्त जरूरत है वरना हर बार पंजाब जैसा प्रयोग करके यह और ज्यादा घायल होती जायेगी। हरियाणा राज्य बनने के बाद जब इस राज्य के पहले मुख्यमन्त्री स्व. पं. भगवत दयाल शर्मा ने स्व. बंसीलाल को अपना उत्तराधिकारी बनाया था तो उनके सामने पार्टी का हित ही सर्वोच्च था और वह पूरी तरह सही साबित हुए थे। 
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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