पश्चिम बंगाल में ममता बैनर्जी के शासनकाल में ऐसा लग रहा है जैसे वर्ग संघर्ष चल रहा है। मां, माटी और मानुष को आराध्य मानने वाली ममता दीदी के शासन से ऐसी उम्मीद कतई नहीं थी। अब तो पश्चिम बंगाल में मनुष्य की पहचान राजनीतिक दल से होने लगी है। राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता एक-दूसरे के खून के प्यासे बन रहे हैं। पुरुलिया में भाजपा के दलित कार्यकर्ता 18 वर्ष के त्रिलोचन महतो की निर्मम हत्या कर उसका शव पेड़ पर लटका दिया गया। शव के पीछे एक पोस्टर चिपका दिया गया था, जिस पर लिखा था कि भाजपा के लिए काम करने का यही अंजाम होगा। राज्य के संरक्षण में संभावनाओं से परिपूर्ण एक युवा का जीवन क्रूरतापूर्ण तरीके से खत्म कर दिया गया। अभी उसकी राख भी ठंडी नहीं हुई थी कि एक आैर भाजपा कार्यकर्ता का शव खम्भे से लटकता मिला। इन दोनों की हत्या उनकी विचारधारा के कारण हुई जो राज्य प्रायोजित गुंडों से अलग थी। पुरुलिया के स्थानीय निकाय चुनावों में त्रिलोचन महतो की सक्रिय भागीदारी के कारण ही उसकी हत्या की गई। हत्या के लिए तृणमूल कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। क्योंकि हाल ही के स्थानीय चुनाव में भाजपा ने अच्छा प्रदर्शन किया है। त्रिलोचन के शव के पास से जैसे नोट मिले हैं वैसा तो एक दशक पहले इलाके में सक्रिय वामपंथी विचारधारा के समर्थक माओवादी ही छोड़ते थे। ऐसा शायद जांच को गुमराह करने के लिए ही किया गया है। पिछले माह हुए चुनावों में भाजपा ने बलरामपुर की सभी सात ग्राम पंचायतों की सीटें जीत ली थीं लेकिन तृणमूल के कार्यकर्ता पुरुलिया को विरोध शून्य करने के दावे करते रहे हैं।
पंचायत चुनावों में नामांकन प्रक्रिया के साथ ही शुरू हुई हिंसा में दो दर्जन से ज्यादा लोगों की मौत हो गई थी और दर्जनों घायल हो गए थे। हिंसा आैर आतंक की स्थिति का अनुमान इसी बात से लागाया जा सकता है कि सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस ने लगभग 34 फीसदी सीटें निर्विरोध जीती थीं। भाजपा, कांग्रेस और वाममोर्चा का आरोप था कि तृणमूल कांग्रेस ने विपक्षी उम्मीदवारों को नामांकन पत्र ही दाखिल नहीं करने दिया था या डरा-धमका कर नाम वापिस लेने पर मजबूर कर दिया था। इन चुनावों में भले ही भाजपा दूसरे नम्बर पर रही लेकिन पहले नम्बर पर रही तृणमूल से उसका काफी फासला है। अगले वर्ष होने वाले लोकसभा और उसके बाद होने वाले विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए राज्य में राजनीतिक संघर्ष और तेज होने की आशंका है।
पश्चिम बंगाल में पंचायत व्यवस्था 1978 में शुरू हुई थी। तब से वर्ष 2013 तक के चुनावी नतीजों को जोड़कर देखें तो 23 फीसदी से कुछ ज्यादा उम्मीदवार ही निर्विरोध चुने गए थे लेकिन अकेले इस बार आंकड़ा 34 फीसदी के पार चला गया। राज्य में सीपीएम ने बिना चुनाव लड़े जीतने की परम्परा की शरूआत की थी। अब की बार ममता ने रिकार्ड ही बना डाला। राज्य में तृणमूल द्वारा बाहुबली, पुलिस और राज्य चुनाव आयोग से मिलकर लोकतंत्र का गला घोटा गया। पहले राज्य में वामपंथी दलों के 34 वर्ष के शासन में राजनीतिक सभ्यताओं को ताक पर रखकर पूरी तरह से लोकतांत्रिक मूल्यों को ध्वस्त किया गया और सरकार से भी अधिक प्रमुखता पार्टी को देकर संवैधानिक व्यवस्था को काफी नुक्सान पहुंचाया गया। कौन भूल सकता है 21 जुलाई, 1993 की घटना को जब वामपंथी सरकार ने विरोध- प्रदर्शन कर रहे यूथ कांग्रेस के कार्यकर्ताओं पर खुलेआम गोली चलवाई थी जिसमें 13 लोग मारे गए थे।
वामपंथियों ने अपने शासन में विपक्षी राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्या के लिए गोलियों का इस्तेमाल ही नहीं किया बल्कि हत्याओं का एक अलग तरीका भी अपनाया। बहुत साल पहले एक अधिकारी ने मुझे बताया था कि पश्चिम बंगाल में एक ऐसी मछली पाई जाती है जो मनुष्य के लिए जानलेवा होती है। वामपंथी शासन में विरोधी सियासी कार्यकर्ताओं के मुंह में जबरदस्ती मछली डाल कर इंतजार किया जाता था कि वह मौत के मुंह में चला जाए। मछली जैसे ही गले से नीचे उतरती शरीर को चीरती जाती थी। सिंगूर और लालगढ़ में राज्य प्रायोजित हिंसा का खूनी खेल सबने देखा है। सिद्धांतविहीन हो चुके वामपंथियों के शासन को उखाड़ा तो ममता बनर्जी ने ही था लेकिन अब वह भी सत्ता में बने रहने के लिए वामपंथियों की राह पर चलने लगी हैं।
सत्ता का अपना चरित्र होता है और लगता है कि अब यह चरित्र ममता बैनर्जी पर हावी हो चुका है। ममता की दीदीगिरी नहीं अब दादागिरी चल रही है। ममता सरकार और पार्टी के भीतर भ्रष्टाचारियों को संरक्षण दिया जा रहा है। सारदा चिटफंड घोटाला ममता बैनर्जी पर एक दाग है। तृणमूल कांग्रेस के आतंक की बड़ी वजह है भाजपा। भाजपा राज्य में तेजी से उभर रही है और तृणमूल कांग्रेस में आपसी गुटबाजी भी काफी तेज है। त्रिपुरा के चुनावी नतीजों से ममता बैनर्जी भयभीत हैं और उन्हें लगता है कि कहीं अगला नम्बर प. बंगाल का न हो। इसी वजह से वह भाजपा के उभार को कुचलने का प्रयास कर रही हैं। यह है किसी भी तरीके से सत्ता से चिपका रहने की मानसिकता। लोकतंत्र में चुनाव एक उत्सव होता है लेकिन इसे खूनी उत्सव में बदलने की साजिशों को स्वीकार नहीं किया जा सकता। हवाएं बता रही हैं कि ममता के पास थोड़े ही दिन बचे हैं। अब पश्चिम बंगाल की जनता ही उन्हें माकूल जवाब देगी।