आठ महीने से मणिपुर में हिंसा का दौर जारी है। राज्य सरकार बार-बार स्थिति सामान्य होने का दावा करती है लेकिन आज भी हत्याओं का सिलसिला जारी है। जब भी हिंसा होती है मणिपुर के मुख्यमंत्री बीरेन सिंह हिंसा के लिए पड़ोसी देशों में सक्रिय आतंकवादियों पर दोष मढ़ देते हैं। लिलोंग में हुई गोलीबारी में 4 लोगों की मौत के बाद इम्फाल घाटी में फिर से कर्फ्यू लगा दिया गया है। मोरेह में कुकी उग्रवादियों के आरपीजी अटैक में पुलिस के आधा दर्जन कमांडों घायल हुए हैं। सुरक्षा बलों पर हमलों के लिए आईईडी का इस्तेमाल किया जा रहा है। लोगों पर बेलगाम फायरिंग की जा रही है। हिंसा के विरोध में प्रतिहिंसा शुरू हो जाती है और आक्रोश के चलते स्थानीय लोग सड़कों पर आ जाते हैं। राज्य में हुई हिंसा में मरने वालों की संख्या 200 तक पहुंच चुकी है और 60 हजार से ज्यादा लोग अपने ही देश में शरणार्थी जैसा जीवन जी रहे हैं। सवाल यही है कि राज्य सरकार हिंसा को काबू करने में इतनी लाचार क्यों नजर आ रही है। उग्रवादियों के पास आरपीजी और आईईडी जैसे हथियार किस तरह पहुंच रहे हैं।
इतने संवेदनशील हालात के बाद भी केंद्र और राज्य सरकारों के रवैए पर कई लोग सवाल उठा रहे हैं। जब वह भयावह वीडियो वायरल हुआ तो प्रधानमंत्री ने चुप्पी तोड़ी लेकिन इसके बाद मणिपुर के मुद्दे को सभी राज्यों में महिलाओं के खिलाफ अपराध से ढंकने की कोशिशें शुरू हो गईं। दुर्भाग्य से ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मणिपुर में अब कोई “बीच का रास्ता” रह ही नहीं गया है। विभिन्न समुदाय अपने रुख को ज्यादा से ज्यादा कट्टर बनाते जा रहे हैं। नागरिक समाज का विलोप हो चुका है और दो संघर्षरत समुदायों के बीच बातचीत-समझौते के लिए अनिवार्य नैतिक प्रतिष्ठा राजनीतिक दल खो चुके हैं। भारत एक महादेश है। यह अपने अंदर पूर्वोत्तर से लेकर सुदूर दक्षिण तक भौगोलिक, भाषाई, सांस्कृतिक और राजनीतिक स्तर पर स्थानीय अस्मिता की भावनाएं समेटे है। ये भावनाएं किसी समुदाय की पहचान, बोली, भाषा, धार्मिकता या संस्कृति से जुड़ी हो सकती हैं। इनकी अभिव्यक्ति अपने-अपने तरीके से होती है। कभी संगठन बनाकर, कभी अलग झंडों के जरिये या कभी सत्ता और संपत्तियों में सुरक्षित, उचित भागीदारी पाकर। ये अस्मिताएं मिलकर अखिल भारतीय अस्मिता के साथ जुड़ती हैं। इन्हीं पहचानों, इन्हीं अभिव्यक्तियों से या कहें कि इन्हीं तमाम स्थानीय उप- राष्ट्रीयताओं से मिलकर अखिल भारतीय राष्ट्रीयता बनती है। भारत राष्ट्र का काम है इन सभी स्थानीय राष्ट्रीयताओं को भारतीय राष्ट्रवाद की बड़ी छतरी के नीचे लाना और उन्हें यह भरोसा देना कि हम सब मिलकर एक हैं।
मैतेई समुदाय को आरक्षण दिए जाने के खिलाफ मणिपुर में हिंसा फैली थी। उस संबंध में अभी तक संबंधित पक्षों से संवाद कायम ही नहीं किया गया। सिर्फ आरक्षण ही मणिपुर हिंसा का एकमात्र कारण नहीं है। कुकी और मैतेई समुदाय के बीच नफरत चंद सालों से नहीं उपजी। कुकी समुदाय के लोगों को सरकार पर भरोसा नहीं है और वह महसूस करते हैं कि सरकार मैतेई समुदाय के लोगों की ज्यादा मदद कर रही है और कुकी समुदाय के लोगों को नजरंदाज किया जा रहा है। मैतेई समुदाय को सरकार का समर्थक माना जाता है। दोनों के बीच कौन बाहरी है और कौन मूल निवासी यह भी विवाद का विषय है। मणिपुर के वर्तमान हालात बताते हैं कि वोट बैंक की सियासत के चलते किसी भी समुदाय विशेष के खिलाफ चलाया गया अभियान घातक ही सिद्ध होता है। दोनों समुदायों में खाई इतनी ज्यादा चौड़ी हो गई है कि हमले के डर से सभी अपनी बंदूकें लेकर अपने-अपने गांव की पहरेदारी में लगे रहते हैं।
केन्द्र सरकार की पहल पर शांति समिति बनाई गई और सुप्रीम कोर्ट की ओर से निगरानी समिति को जिम्मा सौंपा गया लेकिन ऐेसा लगता है कि मणिपुर में गृहयुद्ध की स्थिति बनी हुई है और राष्ट्रवाद को सीधे चुनौती मिल रही है। हर कोई यही पूछ रहा है कि मणिपुर की आग कब बुझेगी। समाधान खोजना राज्य सरकार का काम है। उसे कारागर पहल करनी होगी और वोट बैंक की सियासत छोड़कर दोनों समुदायों को विश्वास में लेकर कोई न कोई मध्यमार्ग अपनाना होगा। व्यापक हिंसा के बावजूद नेतृत्व परिवर्तन नहीं किया जाना आश्चर्यजनक है और इससे हालात और जटिल दिखाई दे रहे हैं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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