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मराठा आरक्षण की आग

जब आरक्षण के प्रावधान संविधान में जोड़े गए तब वे न तो जाति को लेकर थे न ही ​आर्थिक पिछड़ेपन को लेकर। तब सामाजिक और शैक्षणिक रूप से कमजोर वर्ग को आरक्षण देने की बात थी। तब यह माना गया कि आर्थिक पिछड़ापन दूर करना सरकार का फर्ज है इसलिए आरक्षण को गरीबी दूर करने का हथियार नहीं समझा गया था। बाद में वोट बैंक की राजनीति के चलते आरक्षण ऐसा अमृत का प्याला हो गया जिसे छूकर हर जाति अपनी समस्याओं को दूर करना चाहती है। इस देश ने आरक्षण आंदोलन के हिंसक दौर को एक बार नहीं कई बार देखा है। आरक्षण की आग में समाज पहले भी कई बार झुलस चुका है। चाहे वह हरियाणा के जाटों का आंदोलन हो, गुजरात में पटेल समुदाय का आंदोलन हो, राजस्थान के गुर्जर समुदाय का आंदोलन हो, आंध्र प्रदेश के कापू समुदाय का आंदोलन हो। आंदोलन जब हिंसक होते हैं तो न केवल लोगों की जानें जाती हैं बल्कि राष्ट्र की सम्पत्ति को भी नुक्सान पहुंचता है। महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण को लेकर आंदोलन एक बार फिर हिंसक हो गया है। राज्य में अलग-अलग जगहों पर दो विधायकों के और एक मंत्री के घर को आग लगा दी गई। दर्जनों वाहन फूंक डाले गए। राकांपा का कार्यालय जला दिया है। बीड समेत कई जिलों में इंटरनेट बंद कर दिया गया है और कर्फ्यू लगा दिया गया है। आरक्षण की मांग को लेकर लोग आत्महत्याएं करने लगे हैं और विधायक आैर सांसद इस्तीफे दे रहे हैं। आंदोलन के हिंसक होने से राज्य की एकनाथ शिंदे सरकार की मुसीबत और बढ़ गई है। मुख्यमंत्री शिंदे मराठा हैं। उपमुख्यमंत्री देवेन्द्र फडण्वीस और राकांपा दिग्गज शरद पवार भी मराठा हैं।
आंदोलन का नेतृत्व कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता मनोज जरांगे अनिश्चितकालीन अनशन पर बैठे हुए हैं और उनकी अपील पर आंदोलनकारी सड़कों पर उतर आए हैं। महाराष्ट्र में करीब 32 साल पहले मराठा आरक्षण को लेकर पहली बार आंदोलन हुआ था। ये आंदोलन मराठी लेबर यूनियन के नेता अन्नासाहब पाटिल की अगुवाई में हुआ था। उसके बाद से मराठा आरक्षण का मुद्दा यहां की राजनीति का हिस्सा बन गया। महाराष्ट्र में ज्यादातर समय मराठी मुख्यमंत्रियों ने ही सरकार चलाई है लेकिन इसका कोई हल नहीं निकल सका। जबकि 2014 के चुनाव से पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में मराठाओं को 16 प्रतिशत आरक्षण देने के लिए अध्यादेश लेकर आए थे लेकिन 2014 में कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन की सरकार चुनाव हार गई और बीजेपी-शिवसेना की सरकार में देवेंद्र फड़णवीस मुख्यमंत्री बने। फड़णवीस की सरकार में मराठा आरक्षण को लेकर एमजी गायकवाड़ की अध्यक्षता में पिछड़ा वर्ग आयोग बना। इसकी सिफारिश के आधार पर फड़णवीस सरकार ने सोशल एंड एजुकेशनली बैकवर्ड क्लास एक्ट के विशेष प्रावधानों के तहत मराठाओं को आरक्षण दिया। फड़णवीस की सरकार में मराठाओं को 16 प्रतिशत आरक्षण मिला लेकिन बॉम्बे हाईकोर्ट ने इसे कम करते हुए सरकारी नौकरियों में 13 प्रतिशत और शैक्षणिक संस्थानों में 12 प्रतिशत कर दिया। मई 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे रद्द कर दिया।
दरअसल, मराठा समुदाय का कहना है कि सितंबर 1948 तक निजाम का शासन खत्म होने तक मराठाओं को कुनबी माना जाता था और ये ओबीसी थे, इसलिए फिर से इन्हें कुनबी जाति का दर्जा दिया जाए और आेबीसी में शामिल किया जाए। यह लड़ाई लंबे समय से चल रही है लेकिन ऐसा नहीं कि राज्य सरकार ने ऐसा कदम नहीं उठाया हो। महाराष्ट्र सरकार मराठाओं को आरक्षण देने की पूरी कोशिश में है लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा सीमित कर रखी है, वह सरकार के लिए रोड़ा बनी हुई है। महाराष्ट्र में लगभग 30 फीसदी मराठा समुदाय की आबादी है। सामाजिक और आर्थिक रूप से यह समुदाय काफी पिछड़ा हुआ है। उच्च शिक्षा संस्थानों और नौकरियों में मराठा समुदाय का प्रतिनिधित्व न के बराबर है। राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग (एसबीसीसी) की साल 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, महाराष्ट्र में करीब 37.28 फीसदी मराठा गरीबी रेखा (बीपीएल) से नीचे रहते हैं। इस समुदाय का 76 फीसदी समुदाय कृषि और कृषि श्रम पर निर्भर करता है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि माली हालत ठीक नहीं होने की वजह से 2013 से 2018 तक 2152 मराठा समुदाय के किसानों ने आत्महत्या की। इस खुदकुशी की मुख्य वजह कर्ज और फसल की बर्बादी थी।
मराठा आरक्षण आंदोलन के पीछे भी कई कारण हैं। एक मुद्दा आरक्षित वर्गों व जातियों के क्रीमी लेयर का है जो सारा फायदा लेकर जा रहा है। इससे युवाओं में नाराजगी बढ़ी है। उन्हें लगता है कि 90 फीसदी अंक लाकर भी उनका दाखिला अच्छे संस्थानों में नहीं होता, जबकि अपेक्षाकृत काफी कम अंक लाकर आरक्षण के बूते पर दूसरी जातियां लाभ उठाती हैं। अब यह पड़ताल करने का समय आ गया है​ कि आज हमारा समाज वास्तव में कितना पिछड़ा है और उसे आरक्षण की कितनी जरूरत है। अगर हम जाति युद्ध से बचना चाहते हैं तो हमारे नीति निर्माताओं को ठोस कदम उठाना होगा। एक ऐसा राष्ट्रीय आयोग बनना चाहिए जो तमाम मुद्दों को परखे और आरक्षण उन्हें ही दिया जाए जिन्हें वास्तव में इसकी जरूरत हाे। आरक्षण का लाभ पीढ़ी दर पीढ़ी ले चुके लोगाें को इससे वंचित किया जाना चाहिए। मैं इस बात का पक्षधर हूं कि आरक्षण आर्थिक आधार पर होना चाहिए। यह काम वोट बैंक की राजनीति को देखते हुए न होकर ईमानदारी से किया जाना चाहिए।

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