म्यांमार, जिसे पहले बर्मा के नाम से जाना जाता रहा, का इतिहास 13 हजार वर्ष पहले से लेकर आज तक की पहली ज्ञान मानव बस्तियों के समय से लेकर वर्तमान की अवधि को समेटे हुए है। म्यांमार ब्रिटिश का उपनिवेश भी रहा। ब्रिटिश शासन के दौरान वहां सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और प्रशासनिक परिवर्तन हुए, जिसने एक बार कृषि समाज को पूरी तरह से बदल दिया। सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि ब्रिटिश शासन ने देश के असंख्य जाति समूहों के बीच मतभेदों को उजागर किया। 1948 में आजादी के बाद से देश में सबसे लम्बे समय तक चलने वाले गृहयुद्धों में से एक रहा, जिसमें राजनीतिक और जातीय अल्पसंख्यक समूहों और केंद्रीय सरकारों का प्रतिनिधित्व करने वाले विद्रोही समूह शामिल हैं। 1962 से 2010 तक देश कई तरह की आड़ में सैन्य शासन के अधीन था। इस प्रक्रिया में दुनिया के सबसे कम विकसित देशों में से एक बन गया। म्यांमार में लोकतंत्र की स्थापना का श्रेय नेशनल लीग फार डेमोक्रेसी की नेता आंग सान सू को जाता है। कई वर्षों तक सू सैन्य शासन के दौरान नजरबंदी में रही। 1990 के आम चुनावों में नेशनल लीग फार डेमोक्रेसी को भारी जीत मिली थी लेकिन सत्ताधारी जुटां शासन ने चुनाव परिणामों को मानने से इन्कार कर दिया था। अक्तूबर 1991 में सू की को नोबल शांति पुरस्कार दिया गया। 1995 में सू की को नजरबंदी से रिहा कर दिया गया। उसके बाद से ही राजनीतिक परिदृश्य बदला।
2015 के चुनाव में एनएलडी की जबरदस्त जीत के साथ देश से 50 वर्ष के सैन्य शासन का अंत हुआ था। कोरोना महामारी के बीच म्यांमार में संसदीय चुनाव के लिए हुए मतदान में लोगों ने बड़े उत्साह के साथ भाग लिया। चुनाव परिणामों में आंग सान सू की की पार्टी एनएलडी बहुमत की ओर बढ़ रही है। देश की 90 से अधिक पार्टियों ने संसद के ऊपरी और निचले सदन के लिए उम्मीदवार खड़े किये थे। एनएलडी के सामने पांच वर्ष पहले की तरह इस बार भी सैन्य समर्थित यूनियन सॉलिडैरिटी एंड डेवलपमेंट पार्टी की चुनौती थी। सेना समर्थित इस पार्टी ने संसद का विपक्ष का नेतृत्व किया था जबकि पिछले चुनाव में अधिकतर जातीय पार्टियों ने सू की एनएलडी को समर्थन दिया था। यद्यपि गरीबी दूर करने और जातीय समूहों के बीच तनाव कम करने में एनएलडी को कोई खास सफलता नहीं मिली। रोहिंग्या मुसलमानों के मसले पर ही उसे कड़ी आलोचना का शिकार होना पड़ा लेकिन आंग सान सू की देश में अब भी सबसे लोकप्रिय नेता हैं और उनकी पार्टी का देशभर में मजबूत जनाधार है। स्टेट काउंसलर सू की सत्ताधारी पार्टी के लिए सबसे बड़ी चुनौती चुनाव सुधारों की दिशा में कदम बढ़ाना है। सेना ने 2008 में संविधान तैयार किया था। इसके तहत संसद की 25 फीसदी सीटें सेना को स्वतः मिल जाती हैं, जो संवैधानिक सुधारों में सबसे बड़ी बाधा है।
राजनीतिज्ञ विशेषज्ञों का पहले से ही मानना था कि देश में एक विश्वसनीय विकल्प का अभाव है। म्यांमार की बहुसंख्यक जातीय आवादी सू के समर्थन में है। आंग सान सू की के भारत प्रेम के बारे में पूरी दुनिया अवगत है। जब म्यांमार में सेना ने सत्ता पर कब्जा कर लिया तब उन्हें बार-बार नजरबंदी आैर रिहाई का सामना करना पड़ा। भारत सरकार ने हमेशा उनकी पूरी मदद की। यही कारण है कि सू की का झुकाव भारत की तरफ ज्यादा है। इसी कारण भारत ने म्यांमार के कलादान प्रोजैक्ट डील को फाइनल किया। भारत म्यांमार में एक पोर्ट भी विकसित कर रहा है। डील से जारी तनाव के बीच भारत ने म्यांमार से तटीय शिपिंग समझौता किया है। इससे भारतीय जहाज बंगाल की खाड़ी में सितावे बंदरगाह और कलादान नदी के बहुआयामी लिंक के माध्यम से मिजोरम तक पहुंच सकेंगे। इस समझौते से चीन से तनातनी के बीच भारत और म्यांमार के सुरक्षा संबंधों को और मजबूती मिली है। इसी वर्ष 16 मई को म्यांमार ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल की निगरानी में हुए गोपनीय अभियान के बाद एनडी एफबी (एस) के 22 उग्रवादियों को भारत को सौंपा था जिनमें स्वयंभू गृहसचिव राजेन डिभरी भी शामिल था। 2011 में भारतीय सेना ने म्यांमार सेना के सहयोग से पूर्वोत्तर में एक सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम दिया था जिसमें बड़ी संख्या में उग्रवादी मारे गए थे। म्यांमार के साथ भारत की 1600 किलोमीटर की सीमा घने जंगलों से ढकी है, जिसका फायदा पूर्वोत्तर के उग्रवादी संगठन उठाते हैं। पूर्वोत्तर में उग्रवाद को समाप्त करने में म्यांमार पूर्ण सहयोग दे रहा है। चीन की नजरें म्यांमार के चुनावों में लगी हुई थी। चीन भी इस बार सू की की जीत चाह रहा था। चीन को लगता है कि सैन्य शासन में प्रतिनिधियों को मनाना मुश्किल होता है। आर्थिक लाभ के लिए म्यांमार ने चीन से करीबी बनाई हुई है लेकिन चीन म्यांमार पर दबाव बनाने के लिए वहां के विद्रोहियों को पैसा और समर्थन देता है, जिसका म्यांमार सेना विरोध करती है। चीन चाहता है कि म्यांमार उसके बैल्ट एंड रोड के प्रोजैक्ट से जुड़ जाए। म्यांमार की सेना चीन की साजिश से वाकिफ है। म्यांमार के लोकतांत्रिक शासन ही भारत के हित में है और म्यांमार से सू की की जीत लोकतंत्र की जीत है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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