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एनडीए का बढ़ता कुनबा !

एक ओर जहां विपक्षी इंडिया गठबन्धन के घटक दल अलग-अलग राह पर जाते दिखाई पड़ रहे हैं वहीं दूसरी तरफ भाजपा नीत एनडीए गठबन्धन से नये दलों के जुड़ने की खबरें आ रही हैं। निश्चित रूप से यह स्थिति विपक्ष की एकता के लिए अच्छी खबर नहीं कही जा सकती क्योंकि इंडिया गठबन्धन विभिन्न मजबूत क्षेत्रीय दलों का ही गठबन्धन माना जाता है जिसमें कांग्रेस एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी है। ओडिशा से जिस तरह की खबरें मिल रही हैं उससे यही लग रहा है कि इस राज्य का मजबूत क्षेत्रीय दल ‘बीजू जनता दल’ भाजपा के साथ गठबन्धन करने जा रहा है। इसे भी भाजपा के हक में एक सकारात्मक घटना माना जायेगा क्योंकि 2014 में श्री नरेन्द्र मोदी के प्रधानमन्त्री बनने के बाद भाजपा के साथ अभी तक कोई मजबूत क्षेत्रीय दल नहीं जुड़ा है। बल्कि इसके उलट शिवसेना व अकाली दल जैसे भाजपा के पुराने साथी इससे बिछुड़े ही हैं। बीजू जनता दल की पिछले 25 वर्षों से ओडिशा में सरकार है और इसके मुख्यमन्त्री श्री नवीन पटनायक इस पार्टी के एकछत्र नेता माने जाते हैं। बीजू जनता दल का 2009 तक भाजपा से सहयोग था और यह एनडीए का हिस्सा था।
1998 में जब एनडीए का गठन हुआ था तो बीजू जनता दल स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में इसमें शामिल हुआ था। मगर 2008 में ओडिशा के कन्धमाल में भीषण साम्प्रदायिक दंगे हुए थे जिनमें भाजपा पर भी गंभीर आरोप लगे थे। उसके बाद 2009 में बीजू जनता दल लोकसभा चुनाव से पहले एनडीए से बाहर आ गया था। अब पुनः 15 वर्ष बाद लोकसभा चुनावों की बेला में ही यह पुनः एनडीए में शामिल हो रहा है और श्री मोदी के नेतृत्व में शामिल हो रहा है। अतः इससे विपक्ष का यह विमर्श भी हल्का पड़ता है कि श्री मोदी के सत्ता में आने के बाद से देश में भाजपा विरोध का समां बंधा है। बीजू जनता दल की छवि एक धर्मनिरपेक्ष दल की है और पिछले 15 वर्षों से वह कांग्रेस व भाजपा दोनों से बराबर की दूरी बना कर चलता रहा है परन्तु संसद के भीतर इसने बुरे वक्तों में हमेशा 2014 के बाद से भाजपा का साथ ही दिया है। केवल कृषि सम्बन्धी तीन विधेयकों के समय इसने खुलकर भाजपा सरकार का संसद में विरोध किया था। इसकी प्रमुख वजह यह मानी जा रही थी कि इस पार्टी के संस्थापक मुख्यमन्त्री नवीन पटनायक के स्व. पिता श्री बीजू पटनायक गांव व गरीब-गुरबों के पक्के समर्थक थे और अपने समय में किसान नेता स्व. चौधरी चरण सिंह के कट्टर समर्थक थे। यही वजह थी कि जब 1974 में चौधरी साहब ने अपनी पार्टी भारतीय क्रान्ति दल का स्वतन्त्र पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में विलय कर भारतीय लोकदल का गठन किया था तो बीजू पटनायक ने भी अपनी उत्कल कांग्रेस का विलय लोकदल में कर दिया था।
नवीन पटनायक इसी विरासत पर खड़े हुए हैं अतः उन्हें तीन किसान कानूनों का विरोध मजबूरी में ही सही करना पड़ा था। अन्यथा नवीन बाबू की आर्थिक नीतियां लगभग वही हैं जो भारतीय जनता पार्टी की हैं। इस प्रकार देखा जाये तो भाजपा व बीजू जनता दल का गठबन्धन कहीं से भी वैचारिक स्तर पर भिन्न नहीं है। मगर इसके साथ ही राजनैतिक वास्तविकता यह भी है कि लगातार 25 वर्षों से ओडिशा में सत्ता पर काबिज रहने से नवीन बाबू के खिलाफ अब जमीन पर सत्ता विरोधी भावनाएं भी प्रकट होने लगी हैं। दूसरी तरफ लोकसभा चुनावों में भाजपा को राज्य में किसी क्षेत्रीय सहारे की जरूरत महसूस हो रही है। राज्य में विधानसभा चुनाव भी इसी चालू वर्ष के अंत तक होने हैं। नवीन बाबू की वरीयता राज्य शासन पर काबिज रहना है और भाजपा का लक्ष्य केन्द्र की सरकार पर आरूढ़ रहना है। दोनों पार्टियां एक-दूसरे के लक्ष्य को पूरा करने में एक-दूसरे की सहायक हो सकती हैं। हालांकि ओडिशा में कांग्रेस पार्टी ही इन दोनों पार्टियों के खिलाफ मुख्य विपक्षी दल है। 90 के दशक तक इस पार्टी को राज्य में अविजित माना जाता था परन्तु इसके बाद स्थिति एेसी पल्टी की बीजू जनता दल की सरकार हटाये नहीं हट रही है और कांग्रेस संगठन के स्तर पर लगातार कमजोर होती जा रही है जबकि इसके समानान्तर भाजपा मजबूत होती जा रही है। राज्य विधानसभा में 140 सीटें हैं जबकि लोकसभा में 21 सीटें हैं। दोनों पार्टियों के बीच फार्मूला यह बन रहा है कि विधानसभा के 100 से अधिक सीटों पर बीजू जनता दल लड़े और लोकसभा की 15 सीटों पर भाजपा लड़े।
भाजपा को यह स्थिति अपने अनुकूल लग रही है और बीजू जनता दल को भी इसमें सुविधा है। विधानसभा चुनावों में भाजपा का साथ पाकर वह सत्ता विरोधी भावनाओं को दबा सकती है क्योंकि भाजपा भी पिछले 15 साल से राज्य में विरोधी दल की ही भूमिका निभा रही है। लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनावों में एनडीए का मुकाबला कांग्रेस पार्टी से ही होना है। जहां तक लोकसभा चुनावों का प्रश्न है तो कांग्रेस पार्टी इंडिया गठबन्धन की उलझनों में उलझी हुई है। इसमें भाजपा को अपनी राह आसान दिखाई दे रही है।

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