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आतंक से ज्यादा खतरनाक है गड्ढों की

सड़कों पर गड्ढे, यह हमारे ईमानदार नेताओं का प्रकोप और गुंडागर्दी है जिन्होंने सड़क के हाथों कई लोगों को मौत के घाट उतारा। सड़कों पर गड्ढे

सड़कों पर गड्ढे, यह हमारे ईमानदार नेताओं का प्रकोप और गुंडागर्दी है जिन्होंने सड़क के हाथों कई लोगों को मौत के घाट उतारा। सड़कों पर गड्ढे ही नहीं अब गड्ढों में सड़क नजर आती है। कहीं एक्सप्रैस-वे बन रहे हैं मगर महानगरों और शहरों की सड़कों के गड्ढे जानलेवा साबित हो रहे हैं। इन्हीं सड़कों पर चलकर न जाने नेताओं ने कितने वोट कमाए हैं और उन्होंने कितने ही पाप गड्ढों में दबाए हैं। सड़क पहली ही बारिश में धुल जाती है। मुम्बई जैसे महानगर में विकास की टांग गड्ढे में फंस चुकी है। अब तक मानसून की वर्षा के बीच 4 लोगों की जान जा चुकी है। राजधानी दिल्ली में भी सड़क के गड्ढे के कारण एक युवक की जान चली गई। हर वर्ष गड्ढामुक्त सड़कों का वादा किया जाता है लेकिन वर्षा होते ही वादे भी बह जाते हैं और जानलेवा हादसों को न्यौता देने लगते हैं। मुम्बई महानगर निगम का वार्षिक बजट करोड़ों का है लेकिन महानगर की सड़कें आंसू बहाती नजर आती हैं। इसे विडम्बना ही कहेंगे कि भारत में जिन सड़कों पर आपकी जान को कम खतरा होता है वे भीड़भाड़ आैर ट्रैफिक वाली सड़कें ही होती हैं। ये ऐसी सड़कें हैं जहां आपकी जान भले ही सु​रक्षित हो लेकिन इन सड़कों पर यात्रा करते हुए आप कहीं भी वक्त पर नहीं पहुंच सकते जबकि भारत में जिन सड़कों पर आप रफ्तार के साथ सफर कर सकते हैं वे इतनी असुरक्षित हैं कि वहां कभी भी, किसी के साथ आपराधिक वारदात हो सकती है।

अगर वाहन चलाने वाला अपराधियों से बच जाए तो वह दुर्घटना का शिकार हो जाता है। यानी भारत के लोगों को सड़क पर सुरक्षित रूप से चलने का स्वराज आजादी के बाद से अब तक नहीं मिल पाया है। भारत की सड़कों पर ट्रैफिक रेंगता है लेकिन फिर भी भारत में पूरी दुनिया के मुकाबले सबसे ज्यादा सड़क दुर्घटनाएं होती हैं। इसका कारण यह है कि भारत में सड़क हादसे सिर्फ रफ्तार की वजह से नहीं होते ​बल्कि टूटी-फूटी सड़कें और गड्ढे भी इन हादसों के लिए जिम्मेदार हैं। भारत की सड़कें आतंकवाद से भी ज्यादा खतरनाक हो चुकी हैं। यह अपने आप में राष्ट्रीय शर्म और राष्ट्रीय शोक का विषय है। जो लोग सड़क के गड्ढों के कारण मौत की आगोश में सो गए, उनका भी हंसता-खेलता प​िरवार रहा होगा। उनकी भी कुछ उम्मीदें रही होंगी लेकिन गड्ढों ने उनका सहारा छीन लिया।

आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो पिछले वर्ष यानी 2017 में सड़कों के गड्ढों के कारण देशभर में 3597 लोगों की जान चली गई। यह आंकड़ा 2016 से 50 फीसदी ज्यादा है। महाराष्ट्र में मौतों का आंकड़ा 726 रहा जबकि उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक 987 मौतें सड़क दुर्घटनाओं के कारण हुईं। उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा खराब रिकार्ड हरियाणा आैर गुजरात का है। पिछले वर्ष ​​दिल्ली में गड्ढों के चलते 8 लोगों की जान चली गई थी। स्थिति की गम्भीरता को इस दृष्टि से समझना होगा कि पिछले वर्ष आतंकवादी वारदातों और नक्सली हमलों में 803 लोगों की मौत हुई, जिनमें आतंकवादी, सुरक्षा जवान आैर आम नागरिक शामिल हैं। हर वर्ष देश में लगभग एक लाख 60 हजार लोगों की मौत सड़क दुर्घटनाओं में होती है जबकि सड़कों पर गड्ढों की वजह से मौतों का आंकड़ा काफी है। 2011 से लेकर 2016 के बीच यानी 5 वर्षों में भारत में आतंकवादी घटनाओं में 4,945 लोगों की मौत हुई थी। भारत की सड़कें न केवल टूटी-फूटी हैं बल्कि दुनिया की सबसे सुस्त सड़कों में शामिल हैं जहां लोगों को घर से दफ्तर पहुंचने में घंटों लग जाते हैं। ट्रैफिक जाम और वाहनों की धीमी रफ्तार के कारण बदनाम दुनिया के 10 शहरों में 4 अकेले भारत में हैं। ट्रैफिक इंडेक्स के मुताबिक कोलकाता के लोगों को आफिस पहुंचने में औसतन 72 मिनट लगते हैं जबकि मुम्बई में लोगों को दफ्तर पहुंचने में आैसतन 69 मिनट लगते हैं। गुरुग्राम और राजधानी दिल्ली को ही लीजिए। ट्रैफिक के लिए बदनाम गुरुग्राम के लोग औसतन एक या डेढ़ घंटे में आफिस पहुंचते हैं। वर्षा हो जाए तो तीन घंटे तो लग ही जाते हैं।

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने मुम्बई के गड्ढों पर तीखी टिप्पणियां की थीं। सड़कों पर हुई मौतों ने एक बार फिर इस बहस को छेड़ दिया है कि म्युनिसिपल बॉडीज और सड़क स्वामित्व वाली एजेंसियों में भ्रष्टाचार भी इन गड्ढों की बड़ी वजह है। इसके अलावा सड़क पर यातायात नियमों का पालन न करने का लोगों का रवैया भी दुर्घटनाओं के लिए जिम्मेदार है। एक सड़क कितनी बार फाइलों में बनती है, अगर बनती भी है तो मैटीरियल घटिया इस्तेमाल किया जाता है। ठेकेदार, राजनीतिज्ञ आैर विकास अधिकारियों की तिजो​िरयां भरती रहती हैं आैर आम आदमी मरता रहता है।

सड़क सुरक्षा विशेषज्ञ तो कहते हैं कि इन दुर्घटनाओं के लिए जिम्मेदार अधिकारियों पर आईपीसी के तहत हत्या का आपराधिक मुकद्दमा दर्ज होना चाहिए लेकिन विशेषज्ञों की कौन सुनता है। आखिर मुम्बई महानगर पालिका, जिस पर शिवसेना का कब्जा रहा है, का बजट जाता कहां है? छोटे शहरों में तो नगरपालिकाएं भ्रष्टाचार का शिकार हो चुकी हैं। ऐसे में पता ही नहीं चलता कि सड़क पर गड्ढे हैं या गड्ढों में सड़क है। कैसे बनेंगी स्मार्ट सिटी, कैसे बचेगी लोगों की जान, फिर भी हमारे नगर सेवक हैं महान।

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