पाकिस्तान इस समय सबसे बुरे आर्थिक दौर से गुजर रहा है। देश में बढ़ती महंगाई ने देश के लोगों का जीना दूभर कर दिया है। आटा लेने के चक्कर में लोगों को जान गंवानी पड़ रही है। दूसरी ओर पाकिस्तान के सियासी हालात भी बेहद खराब होते जा रहे हैं लेकिन पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान को पंजाब प्रांत के चुनावों की पड़ी है। हालांकि पंजाब प्रांत में चुनावों की तिथि के बारे में अभी स्थिित स्पष्ट नहीं है लेकिन पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी के कार्यकर्ताओं ने इमरान खान के नेतृत्व में चुनाव प्रचार अभियान की शुरुआत कर दी है। सर्वाधिक जनसंख्या वाले पंजाब प्रांत से नैशनल एसैंबली के करीब 150 सदस्य निर्वाचित होते हैं। इसलिए पंजाब प्रांत के चुनावों का बहुत बड़ा महत्व है। पंजाब और खैबर पख्तूनखवा में चुनाव कराने को लेकर संसद और न्यायपालिका में सीधा टकराव चल रहा है। पाकिस्तान में आम चुनाव का मसला भी बड़ा टेढ़ा हो गया है। पाकिस्तान में एक बार फिर राजनीतिक अफरा-तफरी का माहौल पैदा हो चुका है। शाहबाज सरकार किसी न किसी तरह पाकिस्तान काे आर्थिक संकट से निकालने का प्रयास कर रही है। उसकी प्राथमिकता पहले आर्थिक संकट को हल करने की है लेकिन जिस तरह से सरकार और न्यायपालिका में टकराव बढ़ रहा है वह दुर्भाग्यपूर्ण है। सिर्फ पाकिस्तान में ही नहीं बल्कि दुनिया के कई देशों में ऐसी तस्वीरें नजर आई हैं जब वहां संवैधानिक और राजनीतिक प्रणाली नाकाम हो जाती है और कामकाज ठीक से नहीं हो पाता तो या तो गृह युद्ध छिड़ जाता है या फिर अतिरिक्त संवैधानिक तरीके अपनाए जाते हैं।
पाकिस्तान के रक्षा और निर्वाचन अधिकारियों ने सुरक्षा तथा वित्तीय कारणों का हवाला देते हुए उच्चतम न्यायालय से राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण पंजाब प्रांत में 14 मई को चुनाव कराने के अपने आदेश पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया है। प्रधान न्यायाधीश उमर अता बांदियाल के नेतृत्व में अदालत की तीन सदस्यीय पीठ ने चार अप्रैल को फैसला सुनाया था कि सबसे बड़े प्रांत में चुनाव समय पर होने चाहिए और इसके लिए सरकार को पाकिस्तान के निर्वाचन आयोग (ईसीपी) को 21 अरब रुपये देने का निर्देश दिया था। सरकार ने सुरक्षा और वित्तीय कारणों का हवाला देते हुए इस फैसले को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया, क्योंकि देश उग्रवाद का सामना कर रहा है और आर्थिक मंदी के कारण कर्जा चुकाने में चूक सकता है। निर्वाचन आयोग के लिए धन जारी करने की आखिरी तारीख 17 अप्रैल थी, जिनके समाप्त होने के बाद न्यायाधीशों को खुफिया तंत्र के प्रमुखों द्वारा जानकारी दी गई कि ईसीपी ने धन की अनुपलब्धता पर एक रिपोर्ट दी है।
पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट अब इस रिपोर्ट पर विचार करेगा। तब चुनावों की तस्वीर स्पष्ट होगी। भंग की गई पंजाब प्रांत की एसैंबली में इमरान खान की पार्टी को बहुमत हासिल था इसलिए वह महज सत्ता की खातिर चुनाव कराने पर जोर दे रहे हैं। जहां तक खैबर पख्तूनखवा का सवाल है वहां के हालात भी आतंकवाद के चलते बद्तर हो चले हैं। वहां तहरीक-ए-तालिबान से जुड़े आतंकवादी लगातार पाकिस्तानी सुरक्षा बलों पर हमले कर रहे हैं। जिसमें कई जवान मारे जा चुके हैं। तहरीक-ए-तालिबान को पाकिस्तान ने ही खड़ा किया था लेकिन अब वह पाकिस्तान का ही दुश्मन बन बैठा है। एक तरह से खैबर पख्तूनखवा पर तहरीक-ए-तालिबान का वर्चस्व कायम हो चुका है।
प्रधान न्यायाधीश अमर अता बांदियाल ने सभी राजनीतिक दलों के नेताओं को मिल-बैठ कर चुनाव के मसले पर बातचीत करने का परामर्श दिया है। यह परामर्श उन्होंने आम चुनाव और प्रांतीय विधानसभा चुनाव एक साथ कराने की सुनवाई के दौरान दिया। अगर कोई आम सहमति बनती है तो जुलाई में चुनाव कराए जा सकते हैं लेकिन न्यायमूर्ति के अनुरोध के बावजूद पाकिस्तान के राजनीतिक दलों में कोई संवाद नहीं हो पाया। पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी का कहना है कि राजनीतिक संवाद के जरिए आम सहमति बनाई जा सकती है लेकिन अगर कोई सिर पर बंदूक रखकर या धमकी देकर वार्ता करने को कहे तो वह व्यर्थ ही होगी।
दरअसल पाकिस्तान के राजनीतिक दल अपनी-अपनी रोटियां सेंक रहे हैं। किसी को भी यह चिन्ता नहीं कि आवाम को रोटी, दवाईयां और अन्य मूलभूत सुविधाएं मिल रही हैं या नहीं बल्कि सबकी अपनी-अपनी डफली अपना-अपना राग है। इमरान खान पर भ्रष्टाचार के कई मामले चल रहे हैं। वह अब तक कानूनी दांव-पेचों से बचते आ रहे हैं। वह इन सब चुनौतियों के बीच अपना राजनीतिक वजूद बचाने में लगे हैं। शाहबाज सरकार कह रही है कि पाकिस्तान इस समय चुनावों का खर्च नहीं उठा सकता। सच्चाई यह भी है कि वह चुनावों को टाल कर अपनी स्थिति सुधारने के लिए कुछ और मोहलत लेना चाहती है। जमीनी धरातल पर देश की व्यवस्थाएं नाकाम साबित हो चुकी हैं और पाकिस्तान में इस समय राजनीतिक नेतृत्व आगे बढ़ने में असमर्थ हो चुका है। देश में अराजकता फैलने का पूरा खतरा है। अगर पाकिस्तान की आवाम और सरकारी प्रतिष्ठानों के बीच संघर्ष गहराया और सरकार और न्यायपालिका में टकराव बढ़ा तो फौज कोई भी सख्त कदम उठा सकती है। इस बात के साफ संकेत हैं कि पाकिस्तान की सेना तख्ता पलट कर हुकूमत की कुर्सी हथिया सकती है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com