संविधान कहता है कि भारत एक लोक कल्याणकारी राज (वैलफेयर स्टेट) है परन्तु 1991 से जब देश में आर्थिक उदारीकरण शुरू हुआ तो हमने लोक कल्याणकारी अर्थव्यवस्था को ‘नेहरूवादी अर्थ तन्त्र’ कहना शुरू कर दिया और बाजार मूलक या पूंजीमूलक अर्थव्यवस्था का वह फलसफा पेश करना शुरू किया जिसे स्वतन्त्रता आंदोलन की लड़ाई के दौरान महात्मा गांधी ने भारत के लोगों के हितों में मानने से इन्कार कर दिया था। गांधी ने एकाधिक बार ‘हरिजन’ अखबार में लिखा कि यदि साम्यवाद या कम्युनिज्म में से हिंसा निकाल दी जाये तो उन कम्युनिस्टों के समाजवाद से कोई गुरेज नहीं है मगर शर्त यह है कि समाजवाद का लक्ष्य ऊपर के लोगों को मिटाना नहीं बल्कि नीचे के लोगों को उठाना होना चाहिए। बाजारमूलक आर्थिक तन्त्र में पूंजी की ताकत से बलशाली बने व्यक्ति का अस्तित्व बोध हमें जंगल के कानून की तरफ खींच सकता है (फिटेस्ट विल हैव सर्वाइवल)। यही वजह थी गांधी जी कहते थे कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी अधिकतम खर्च व उपयोग की सीमा तय करनी चाहिए। मगर समाजवाद में ‘वर्ग संघर्ष’ के लिए नहीं बल्कि ‘वर्ग समन्वय’ के लिए ही स्थान हो सकता है। इसलिए हम देखते हैं कि नेहरू काल के दौरान कांग्रेस के समाजवादी गुट के नेताओं जैसे डा. राम मनोहर लोहिया व आचार्य नरेन्द्र देव ने भारतीय लोकतन्त्र में लोक कल्याणकारी राज की स्थापना पर सर्वाधिक बल दिया और डा. लोहिया ने अपनी अपेक्षाओं पर खरा न उतरने के लिए नेहरू जी की कड़ी आलोचना भी बार- बार की।
नेहरू युग की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि अपने प्रधानमन्त्रीत्वकाल के दौरान पं. जवाहर लाल नेहरू ने बिना एक पत्ता खड़काये ही लोक कल्याण की परिकल्पना को आर्थिक स्तर पर इस प्रकार उतारा कि राष्ट्रीय सम्पत्ति की हिस्सेदारी में गरीब व निचले वर्गों का हिस्सा लगातार बढ़ता रहा जबकि भारत की आर्थिक विकास वृद्धि दर मुश्किल से तीन से साढे़ तीन प्रतिशत के करीब ही रहती थी। यह कार्य उस समय योजना आयोग के माध्यम से ही किया गया जबकि 1963 में डा. लोहिया ने लोकसभा में नेहरू को यह चुनौती दी कि उनके योजना आयोग का यह आकड़ा गलत है कि भारत के औसत आदमी की रोजाना की आमदनी 12 आने है। डा. लोहिया ने अपने आंकड़े पेश किये और कहा कि भारत का औसत आम आदमी केवल तीन आना रोज पर जीता है। नेहरू जी ने इस चुनौती को स्वीकार किया और योजना आयोग का पुनर्गठन किया व प्रख्यात अर्थशास्त्री अशोक मेहता को इसका उपाध्यक्ष बनाया। अशोक मेहता एक मायने में वैचारिक रूप से डा. लोहिया व आचार्य नरेन्द्र देव के ही बहुत करीब माने जाते थे और समाजवाद के पुरोधा के रूप में उनकी भी छवि थी।
दरअसल स्वयं कांग्रेस पार्टी से लेकर इससे अलग हुई विभिन्न समाजवादी व अन्य पार्टियों की यह अटूट निष्ठा थी कि लोकतन्त्र में नागरिकों को सुविधाएं या रियायतें खैरात या तोहफों की तरह नहीं दी जाती बल्कि उनके वैधानिक अधिकारों की तरह दी जाती हैं। अतः भारत के गरीबों को उन्हीं के द्वारा चुनी गई सरकार जो भी लाभ या रियायतें अथवा सुविधाएं दे वे उनके कानूनी हक के रूप में दे। अतः हम पाते हैं कि कथित नेहरूवादी या ‘नेहरूवियन’ अर्थव्यवस्था के दौरान ऐसी व्यवस्थाएं संस्थागत तौर पर की गईं कि गरीब आदमी को सरकारी मदद हक के तौर पर मिलती रहे जिसका उल्लंघन करने पर प्रशासनिक स्तर पर सम्बन्धित कर्मचारी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई भी हो। इंदिरा गांधी भी इसी नीति पर चलती रहीं परन्तु 1990 में पी.वी. नसिम्हाराव राव ने प्रधानमन्त्री बनते ही इस समीकरण को उल्टा कर दिया और नई उदारवादी अर्थव्यवस्था को जन्म दिया। स्व. नरसिम्हाराव के वित्तमन्त्री के तौर पर डा. मनमोहन सिंह ने सर्वाधिक जोर औद्योगिक व सेवा और वित्त क्षेत्र पर दिया मगर कृषि क्षेत्र को लावारिस बना कर छोड़ दिया और इसमें सार्वजनिक निवेश की हिस्सेदारी नाममात्र की रह गई परन्तु जब डा. मनमोहन सिंह ने 2004 में सत्ता की अपनी दूसरी दस साला पारी शुरू की तो कांग्रेस की अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने अपनी पार्टी के पुराने फलसफे को सतह पर लाकर खड़ा कर दिया और मनमोहन सिंह को मजबूर किया कि वह ‘खाद्य सुरक्षा कानून’ बनाये। इसी शिक्षा के अधिकार का कानून संसद में तत्कालीन शिक्षामन्त्री कपिल सिब्बल ने बनाया।
सूचना के अधिकार का कानून भी हालांकि बना दिया गया था। इन कानूनों के बनने से पूरी दुनिया में यह सन्देश चला गया कि बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का अनुसरण करने के बावजूद भारत गांधी का ही देश रहेगा और यहां की सरकारें लोक कल्याणकारी राज की स्थापना के प्रति समर्पित रहेंगी। हालांकि राजस्थान के मुख्यमन्त्री श्री अशोक गहलौत की तुलना हम अपने राष्ट्रीय पुरोधाओं से नहीं कर सकते हैं मगर राज्य स्तर पर विभिन्न लोक कल्याणकारी कानून लाकर जयपुर की धरती से वह स्पष्ट सन्देश दे रहे हैं कि उनके प्रदेश के हर गरीब-मुफलिस व लाचार इंसान को सम्मान के साथ जीने का अधिकार है और लोकतन्त्र में यह उसका कानूनी हक है। श्री गहलौत ने पिछले दिनों प्रत्येक गरीब व असहाय आदमी के लिए जिस न्यूनतम आय विधेयक की बात की है उसने पूरे देश के लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचा है। इस विधेयक में कार्य न करने लायक उम्र में पहुंच जाने पर प्रत्येक मजदूर व गरीब व्यक्ति को एक हजार रुपए पेंशन दी जायेगी जिसमें हर वर्ष 15 प्रतिशत वृद्धि होती जायेगी। इससे पहले गहलौत सरकार पूरे देश में पहली बार स्वास्थ्य का अधिकार कानूनी रूप से अपने राज्य के नागरिकों को दे चुकी है। लोकतन्त्र तभी जमीन पर लहलहाता है जब इसके नागरिकों को उनके हक कानूनी तौर पर दिये जाते हैं और उन्हें सम्मानपूर्वक जीवन जीने का माहौल दिया जाता है। शिक्षा, भोजन व स्वास्थ्य ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें सरकारें जितना अधिक निवेश करती हैं उससे आने वाली पीढि़यां उतनी ही अधिक मजबूत बनकर राष्ट को मजबूत बनाती हैं। यह दृष्टि ही गांधीवादी दृष्टि कहलाती है और लोक कल्याणकारी राज की स्थापना करती है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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