असली–नकली शिवसेना का पेंच - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

असली–नकली शिवसेना का पेंच

महाराष्ट्र की क्षेत्रीय पार्टी ‘शिवसेना’ का अब विधिवत रूप से विभाजन हो गया है।

महाराष्ट्र की क्षेत्रीय पार्टी ‘शिवसेना’  का अब विधिवत रूप से विभाजन हो गया है। चुनाव आयोग ने पार्टी के संस्थापक स्व. बाला साहेब ठाकरे के सुपुत्र उद्धव ठाकरे के गुट वाली पार्टी को शिवसेना (उद्धव बाला साहेब ठाकरे) व बागी नेता एकनाथ शिन्दे के गुट की पार्टी को ‘बालासाहेबंची शिवसेना’ का नाम दिया है। इसके साथ ही चुनाव आयोग ने शिवसेना का मूल चुनाव निशान तीर-कमान जाम कर दिया है और उद्धव गुट को ‘मशाल’ चुनाव चिन्ह आवंटित किया है। शिन्दे गुट द्वारा जो भी तीन निशान चुनाव आयोग के विचारार्थ भेजे गये थे उन तीनों को आयोग ने इस आधार पर अस्वीकृत कर दिया है क्योंकि ये धार्मिक प्रतिबिम्बों को दर्शाते थे। चुनाव आयोग का यह फैसला पूरी तरह उचित कहा जा सकता है क्योंकि धार्मिक चुनाव चिन्ह किसी भी राजनैतिक दल को नहीं दिये जा सकते। लेकिन उद्धव गुट आयोग के इस फैसले के विरुद्ध उच्च न्यायालय चला गया है। उसकी दलील है कि चुनाव चिन्ह आवंटित करने के मामले में उसके साथ न्याय नहीं किया गया है कि उनकी पार्टी ही असली शिवसेना है जबकि शिन्दे गुट बगावत करके इस पार्टी को छोड़ कर गया है। इस मामले में उच्च न्यायालय कितना कुछ कर पायेगा, यह तो न्यायालय में प्रस्तुत कानूनी तकनीक की दलीलों से ही पता चलेगा मगर मोटे तौर पर राजनैतिक पार्टियों की व्यवस्था चुनाव आयोग के क्षेत्र में ही आती है। 
स्वतन्त्र भारत में एेसा पहला मामला 1969 में कांग्रेस पार्टी के दो भाग हो जाने पर सामने आया था। उस समय प्रधानमन्त्री के पद पर आसीन श्रीमती इन्दिरा गांधी को कांग्रेस पार्टी की कार्यसमिति ने उन्हें पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से ही बर्खास्त कर दिया था मगर संसद में श्रीमती गांधी को कांग्रेस सांसदों के बहुत बड़े गुट का समर्थन प्राप्त था।  श्रीमती गांधी ने तब अपने गुट को ही असली कांग्रेस पार्टी बताया था। जबकि उनके विरोधी धड़े में पूरी कांग्रेस कार्य समिति थी और प्रदेश कांग्रेस के अधिसंख्य नेता भी थे। तब यह मामला चुनाव आयोग के समक्ष गया था। उस समय केवल एक मुख्य चुनाव आयुक्त ही हुआ करते थे। तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त श्री एस.पी. सोनवर्मा ने दोनों कांग्रेस पार्टियों के बीच की लड़ाई को देखते हुए इसका मूल चुनाव चिन्ह ‘दो बैलों की जोड़ी’ सीज या जाम कर दिया था और दोनों गुटों को कांग्रेस की ही मान्यता देते हुए इनके अलग-अलग नाम दिये थे। कांग्रेस कार्य समिति वाले गुट की कांग्रेस को कांग्रेस (संगठन) व इंदिरा गांधी गुट की कांग्रेस को कांग्रेस (आई) नाम दिया गया था। तब इंदिरा जी ने अपने गुट की कांग्रेस का अध्यक्ष स्व. जगजीवनराम को बना दिया था और बाद में यही असली कांग्रेस का रूप धरती चली गई। इसी प्रकार चुनाव चिन्हों का बंटवारा भी किया गया था। 
संगठन कांग्रेस को चरखा कातती हुई महिला का निशान मिला था जबकि इन्दिरा कांग्रेस को गाय-बछड़ा चुनाव निशान आवंटित किया गया था। इस पर भी विवाद चला था मगर बाद में वह समाप्त हो गया था। इसके बाद पुनः 1978 में कांग्रेस का बंटवारा हुआ। यह बंटवारा इमरजेंसी के बाद उपजी परिस्थितियों की देन थी क्योंकि इमरजेंसी हटने के बाद 1977 में हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी की उत्तर पश्चिम व पूर्वी भारत में भारी पराजय हुई थी और केवल दक्षिण भारत के चारों राज्यों में ही यह पार्टी विजयी रही थी।  उस समय भी कांग्रेस कार्य समिति पर कब्जा जमाये कांग्रेसी नेताओं ने इन्दिरा जी के सिर पर इमरजेंसी का सारा दोष डालते हुए उन्हें पार्टी से निकाल दिया था तब इन्दिरा जी ने पुनः कांग्रेस में अपना गुट बनाया और इसे ही असली कांग्रेस माने जाने की दर्ख्वास्त चुनाव आयोग में लगाई। इस पार्टी के पुनः दो फाड़ हुए और कांग्रेस (अर्स) व कांग्रेस (आर) कहलाये । मगर अन्त में इन्दिरा गांधी के गुट की कांग्रेस (आर) ही असली कांग्रेस  बनती चली गई।  इसी प्रकार जब 1977 में सत्तारूढ़ हुई पंचमेल पार्टी जनता पार्टी 1980 में जाकर बिखरी तो इसमें विलीन हुए सभी प्रमुख घटक दलों ने अपना अलग-अलग अस्तित्व कायम किया और जनसंघ ने नया नाम भारतीय जनता पार्टी के रूप में लिया और अपना चुनाव निशान भी दीपक से बदल कर कमल का फूल कर लिया। इसी प्रकार चौधरी चरण सिंह की पार्टी लोकदल भी अलग हो गई और इसका चुनाव निशान जो कि कन्धे पर हल लिये किसान का था जनता पार्टी के नाम ही रहा। बाद में लोकदल का नया नामकरण दलित- मजदूर- किसान पार्टी भी हुआ। लेकिन ये सब फैसले चुनाव आयोग द्वारा ही किये गये। अतः चुनाव आयोग की विश्वनीयता को चुनौती देना राजनैतिक अक्लमन्दी नहीं कही जा सकती।  भारत में चुनाव आयोग के पास अर्ध न्यायिक अधिकार भी होते हैं जो राजनैतिक दलों से सम्बन्धित विवादों को समाप्त करने के लिए ही होते हैं। शिवसेना के मामले में बहुत स्पष्ट है कि आयोग ने निष्पक्षता की भावना से काम किया है। अगर यह तर्क दिया जाता है कि आगामी 14 अक्टूबर को मुम्बई के एक अंधेरी क्षेत्र में होने वाले उपचुनाव को देखते हुए आयोग ने जल्दबाजी में फैसला दिया है तो पूरी तरह अनुचित तर्क है क्योंकि चुनाव आयोग को अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह बिना किसी लाग-लपेट या दलगत मोह से ऊपर उठ कर देना होता है। यह स्वयं में स्वतन्त्र व ऐसी संवैधानिक संस्था है जो अपनी शक्तियां केवल संविधान से ही लेती है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

1 × three =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।