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पहाड़ों पर वर्षा का आतंक !

पहाड़ी राज्यों हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड में भारी वर्षा ने जिस तरह विनाश का खेल खेला है उससे पर्वतीय क्षेत्रों के विकास के लिए की जा रही विभिन्न गतिविधियों पर सवालिया निशान लग रहे हैं

पहाड़ी राज्यों हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड में भारी वर्षा ने जिस तरह विनाश का खेल खेला है उससे पर्वतीय क्षेत्रों के विकास के लिए की जा रही विभिन्न गतिविधियों पर सवालिया निशान लग रहे हैं और भूगर्भ शास्त्री इस बारे में चेतावनियां भी दे रहे हैं कि पहाड़ी क्षेत्रों के लिए विकास का पैमाना वह नहीं हो सकता जो मैदानी क्षेत्रों में होता है। अभी तक हिमाचल प्रदेश में भूस्खलन जिस पैमाने पर हुआ है उससे हजारों करोड़ रुपए की सम्पत्ति और भारी जान-माल की हानि हो चुकी है। पर्वतों पर बसे शहरी व अर्ध-शहरी इलाकों में बाढ़ की स्थिति बनी हुई है जो यहां से आने वाली नदियों के मैदानी क्षेत्रों में उतरने पर इनकी भयावहता को और बढ़ा देती है। पहाड़ों की तराई के इलाकों की हालत और भी खराब है। 
वास्तविकता यह भी है कि बाजारमूलक अर्थव्यवस्था के दौर में धार्मिक क्षेत्रों व तीर्थों तक का बाजारीकरण या व्यापारीकरण हो चुका है। हमें यह भेद समझना होगा कि ‘तीर्थाटन’ और ‘पर्यटन’ में भारी अन्तर होता है। धार्मिक स्थानों को यदि हम ‘पिकनिक’ स्थलों में परिवर्तित करने का प्रयास करेंगे तो पहाड़ों का बेतरतीब विकास होगा ही। इस विकास में जब ‘पूंजी’ अपनी केन्द्रीय भूमिका में आती है तो बाजारीकरण शुरू हो जाता है जो इन्हें पिकनिक स्थलों में परिवर्तित कर देता है। हिन्दू संस्कृति में तीर्थाटन का बहुत महत्व बताया गया है और पुराणों में इनका मनमोहक वर्णन भी मिलता है। तीर्थाटन के लिए श्रद्धा केन्द्रीय भूमिका निभाती है मगर जब इसे पर्यटन में बदल दिया जाता है तो पूंजी केन्द्रीय भूमिका में आ जाती है और तीर्थाटन को भी व्यवसाय में बदल देती है। मगर दूसरी तरफ यह भी वास्तविकता है कि इस देश के कदीमी पूंजीपति इससे परिचित थे। इसीलिए हम भारत के लगभग सभी प्रमुख तीर्थ स्थलों में सेठ बिड़ला और डालमिया द्वारा बनवाई गई धर्मशालाएं या विश्राम स्थल आज भी देखते हैं। हालांकि अब एेसे स्थानों पर भारी संख्या में होटल व रिजार्ट तक भी बनने लगे हैं। 
बाजारवाद ने पुण्य को लाभ में बदल दिया है। तीर्थाटन के अलावा इसके उदाहरण शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र भी हो चुके हैं। मगर तीर्थों को पर्यटक स्थल में बदलने के लिए हमने पहाड़ों पर जिस तरह का आधारभूत ढांचा गत क्षेत्र से लेकर आवास क्षेत्र तक में अंधाधुंध निर्माण कार्य किया है और पहाड़ों को एक तरफ खोदा है और दूसरी तरफ उन पर क्रंक्रीट का निर्माण कार्य करके बोझ बढ़ा दिया है उससे प्रकृति द्वारा निर्मित इन मनोहर स्थानों का स्वरूप बदल रहा है। पिछले दिनों हमने बद्रीनाथ तीर्थ की यात्रा के आधार नगर जोशीमठ की हालत देखी थी कि किस प्रकार यह शहर दरकने लगा है। उससे पहले श्री केदारनाथ धाम में आयी विनाश लीला को भी देखा था। यह सब पहाड़ों पर बोझ बढ़ाने का ही नतीजा है और पहाड़ों को बेहिसाब तरीके से काटने व खोदने का ही नतीजा है। अगर कालका-शिमला राजमार्ग पर सोलन तक की दूरी में ही दस जगह भूस्खलन होता है तो हमें सोचना पड़ेगा कि गलती कहां हुई है। यदि शिमला शहर की पहाड़ियों पर ही मकान ढहने लगते हैं तो हमें सोचना पड़ेगा कि एेसे स्थानों में भवन निर्माण के नियम क्या हैं?
 हिमाचल के मुख्यमन्त्री श्री सुखविन्दर सिंह सुक्खू का यह कहना पूरी तरह न्यायाेचित है कि पूर्व सरकारों ने बिना सोचे-समझे शहर में भवनों का निर्माण होने दिया। हमारे सामने यूरोपीय देशों के उदाहरण हैं कि वहां के पर्वतीय क्षेत्रों के विकास के क्या पैमाने रहे हैं। यह तर्क दिया जा सकता है कि इन देशों की जनसंख्या और भारत की जनसंख्या में जमीन-आसमान का अन्तर है मगर पहाड़ों की प्रकृति में तो उस देश की जलवायु के अनुसार ही परिवर्तन होगा। इसे देखते हुए ही भारत को अपने पहाड़ों की विकास नीति तैयार करनी होगी। इस काम में भूगर्भ शास्त्रियों की ही प्रमुख भूमिका हो सकती है। हिमाचल के मुख्यमन्त्री श्री सुक्खू जब यह स्वयं स्वीकार कर रहे हैं कि पहाड़ों पर पूरी तरह गैर वैज्ञानिक तरीके से अंधाधुंध निर्माण करा कर और सड़कों को चौड़ी करने के मोह में पहाड़ों को अंधाधुंध काट कर हमने इस मुसीबत को खुद दावत दी है तो पूरे देश को विचार करना चाहिए कि प्रकृति का बिना जाने-बूझे शोषण करने का क्या नतीजा हो सकता है। उनकी राय में पहाड़ों पर सड़कों की मजबूती बहुत मायने रखती है अतः कई लेन की सड़कें बनाने की जगह टनल या सुरंग बना कर सड़कें बनाने पर जोर होना चाहिए। इसमें यदि खर्चा ज्यादा भी आता है तो जन हित में उसे बर्दाश्त किया जाना चाहिए। 
पहाड़ों पर निर्माण व सुरक्षा के बीच सन्तुलन बना कर ही स्थायी विकास हो सकता है। हमारे बुजुर्ग बेशक साइंस दां नहीं थे मगर उन्हें प्रकृति के साथ व्यावहारिक संवाद बनाना आता था। इसका उदाहरण ‘कालका- शिमला’ रेलमार्ग है जिसे बनाने में अंग्रेजों ने स्थानीय लोगों के जमीनी ज्ञान का इस्तेमाल भी भरपूर तरीके से किया था। मगर इस बार तो हमारी आपाधापी ने इस रेलवे लाइन को भी बीच में कई जगह नुक्सान पहुंचाया। पहाड़ों पर विकास कार्यों की देखरेख के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक विशेषज्ञ समिति बनाये जाने की सख्त जरूरत है। बेशक पर्यावरण ट्रिब्यूनल है मगर पहाड़ों के लिए भूगर्भ शास्त्रियों की निगरानी की भी आवश्यकता है। साठ वर्ष पहले जब उत्तराखंड में श्री चंडीदास भट्ट ने पेड़ों की सुरक्षा के लिए ‘चिपको’ आन्दोलन चलाया था तो उसके मूल में पर्वतीय क्षेत्रों में बेतरतीब निर्माण कार्य को रोकना ही था। 
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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