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जातिगत जनगणना का बावेला

जातिगत जनगणना को लेकर देश में जो राजनीति हो रही है उसका सम्बन्ध क्या सामाजिक न्याय से है? सबसे बड़ा प्रश्न भारत के जातिगत समाज को देखते हुए यही है जिसका उत्तर हमें राजनीति में नहीं बल्कि सामाजिक संरचना में मिलेगा।

जातिगत जनगणना को लेकर देश में जो राजनीति हो रही है उसका सम्बन्ध क्या सामाजिक न्याय से है? सबसे बड़ा प्रश्न भारत के जातिगत समाज को देखते हुए यही है जिसका उत्तर हमें राजनीति में नहीं बल्कि सामाजिक संरचना में मिलेगा। यह ऐतिहासिक सत्य और वास्तविकता है कि पूरी दुनिया में केवल भारतीय उपमहाद्वीप में ही जाति प्रथा है और मूल रूप से हिन्दू समाज में ही है जिसका असर भारत में आने वाले अन्य मजहबों पर भी पड़े बिना नहीं रह सका है। खास कर इस्लाम धर्म में भी यह व्यवस्था इसलिए फैली क्योंकि इस मजहब में परिवर्तित होने वाले भी अधिसंख्य हिन्दू ही थे और वे लोग ज्यादा थे जो हिन्दू समाज की जन्मगत जाति पहचान की वजह से समाज में नीची जाति के माने जाते थे। परन्तु जाति की मूल समस्या हिन्दू समाज में ही हजारों वर्षों से चली आ रही थी और आज भी है। जब हम आजाद हुए तो हमने जाति विहीन समाज की स्थापना का संकल्प लिया और जाति के आधार पर किसी को ऊंचा या नीचा मानने की परंपरा का निषेध करने की कसम उठाई मगर यह काम सिर्फ कागजी और जुबानी-जमा खर्च का ही रहा।
भारत के संविधान ने हिन्दुओं में वर्णाश्रम नियम के अनुसार शूद्र कहे जाने वाले या हरिजन अथवा दलित के रूप में परिभाषित किये जाने वाले समाज के लोगों के साथ ही आदिवासी कहे जाने वाले लोगों को सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक रूप से बराबरी पर लाने के लिए हमारे संविधान में 22.5 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई जिससे इस समाज के लोग सदियों से पशुवत व्यवहार के अभिशाप से मुक्त हों और अपनी जन्मगत जाति की वजह से इंसानी अधिकारों से वंचित न रहें। कोई भी व्यक्ति किसी विशेष जाति में जन्म लेने से किस प्रकार ऊंचा या नीचा हो जाता है इसका भेद मानवता की सकल संवेदना में कहीं नहीं खुलता है जबकि हिन्दू धर्म ग्रन्थों में इसकी व्याख्या भिन्न-भिन्न सन्दर्भों में  की जाती रही है। परन्तु कोई भी व्यक्ति ईश्वर के समक्ष यह प्रार्थनापत्र लगाकर नहीं आता कि उसका जन्म किस जाति या किस धर्म में हो। अतः भारत के संविधान ने केवल मानवता को अपना परम सिद्धान्त मानते हुए सभी लोगों में एक समान बराबरी का उद्घोष किया।
यह संयोग नहीं है कि इस संविधान को लिखने वाले भी उसी समाज के थे जिनके साथ बैठकर पढ़ाई करना भी ऊंची जाति के लोग अपना अपमान समझते थे। यह और कोई नहीं बल्कि बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ही थे जिन्हें महात्मा गांधी के आग्रह पर ही संविधान प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया गया था। वह उस दौर के सभी राजनीतिज्ञों में सर्वाधिक शिक्षित व्यक्ति थे। कथित नीची जाति में पैदा होने का दुःख उन्होंने झेला था। अतः दलितों के लिए पिछले 75 साल से चले आ रहे आरक्षण की भरपाई किसी भी रूप में हजारों वर्षों से उन पर किये गये अत्याचार और अमानवीय पशुवत व्यवहार से नहीं हो सकती। यह कार्य तब तक जारी रखना होगा जब तक कि जन्मगत जाति के आधार पर हिन्दू समाज में आदमी को आदमी से ऊपर माना जाता है। परन्तु स्वतन्त्र भारत की राजनीति में वोट बैंक की राजनीति कोई नया अस्त्र नहीं थी, अतः इसका प्रयोग समय-समय पर होता रहा और एक समय ऐसा भी आया जब भारत के सभी सम्प्रदायों व वर्गों के लोगों ने संगठित होकर अपना राजनैतिक वर्चस्व स्थापित करना शुरू किया। इसे उस समय शहरी व ग्रामीण प्रतियोगिता के रूप में भी देखा गया मगर वास्तव में यह राजनीति भारत के सभी कामगार वर्गों की एकता की राजनीति थे और इसके सिपहसालार स्व. चौधरी चरण सिंह थे। इसका प्रमाण यह है कि जब 1977 में इमरजेंसी हटने के बाद चुनाव हुए और सभी प्रमुख विपक्षी दलों के कांग्रेस के खिलाफ एक जनता पार्टी बनी तो समूचे उत्तर, पूर्वी व पश्चिम भारत में इस पार्टी की अपने सहयोगी दलों के साथ शानदार जीत हुई और इसे लोकसभा की साढे़ तीन सौ से ज्यादा सीटें मिली मगर इन सीटों में सर्वाधिक सांसदों की संख्या 178 उस लोकदल घटक के सदस्यों की थी जिसकी अगुवाई जनता पार्टी बनने से पहले चौधरी चरण सिंह करते थे। संयोग से जनता पार्टी की मोरारजी देसाई सरकार में चौधरी साहब के मतभेद पैदा हो गये और वह गृहमन्त्री के पद से रूठ गये। इसी दौरान मोरारजी देसाई सरकार ने मंडल आयोग का गठन पिछड़ों की स्थिति जानने के लिए किया। चरण सिंह उस समय कोपभवन में थे और उनके सशक्त जनाधार को तितर-बितर करने के लिए अस्त्र छोड़ा जा चुका था। इसके बाद चौधरी साहब को वित्त मन्त्री बनाया गया। अतः सबसे पहले यह समझ लिया जाना जरूरी है कि मंडल आयोग का गठन पिछड़ी जातियों के नाम पर ग्रामीण समाज की एकता को तोड़ने का ब्रह्मास्त्र था। इस समाज में जो राजनैतिक जागरूकता लाने में चरण सिंह कामयाब हो रहे थे उसे वी.पी. सिंह ने 1989 में केवल 11 महीने प्रधानमन्त्री पद पर रहते हुए हमेशा के लिए धराशायी कर दिया और स्वतन्त्र भारत में फिर से जातिवाद को नया जीवन दे दिया। मंडल आयोग ने जन्मगत जातिगत आधार पर सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़ेपन का आंकलन किया था। यह तरीका ठीक अंग्रेजी शासन की उस पद्धति के अनुसार था जिसमें उन्होंने फौज में भर्ती करने के लिए हिन्दुओं की लड़ाकू जातियों के लोगों का चयन किया था और उनकी जातियों के नाम पर रेजीमेंट बनाये थे। अंग्रेजों ने तो मुसलमानों की भर्ती में भी यही पैमाना अपना रखा था। अब यदि 21वीं सदी में भी हम जातिगत आधार पर जनगणना कराते हैं तो हिन्दू समाज में जातियों की जड़ों को और ज्यादा मजबूती से जमाने का काम ही करेंगे। पिछड़े वर्गों को फिलहाल 27 प्रतिशत आरक्षण नौकरियों में प्राप्त है। यह आरक्षण शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर दिया गया है। यदि समाजवादी चिन्तक स्व. डा. राम मनोहर लोहिया के सिद्धान्त को समझा जाये तो यह पिछड़ापन केवल तभी समाप्त हो सकता है जब उनके नारे के अनुसार :
राष्ट्रपति का बेटा हो या चपरासी की हो सन्तान
टाटा या बिड़ला का छौना सबकी शिक्षा एक समान। 

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