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तांत्रिकों का ‘हत्याजाल’

यह विरोधाभासों और विषमताओं से भरी मानव मानसिकता की ही कलुषता है कि एक स्त्री सन्तान पाने के लिए दूसरी स्त्री की सन्तान की बलि दे देती है और उस पर सितम यह कि वह ‘मन्त्र-तन्त्र’ को ऐसा करने का माध्यम बनाती है।

यह विरोधाभासों और विषमताओं से भरी मानव मानसिकता की ही कलुषता है कि एक स्त्री सन्तान पाने के लिए दूसरी स्त्री की सन्तान की बलि दे देती है और उस पर सितम यह कि वह ‘मन्त्र-तन्त्र’ को ऐसा करने का माध्यम बनाती है। राजधानी दिल्ली के रिठाला गांव (रोहिणी) की इस घटना ने सबको स्तब्ध कर दिया। मन्त्र-तन्त्र मनुष्य की मानसिक अवस्था की ऐसी स्थिति है जिसमें वह कर्महीनता को अपना ध्येय बना कर कार्य की पूर्ति करना चाहता है। मन्त्र-तन्त्र की पराशक्तियों में विश्वास  रखने वाले मनुष्य अपने ऊपर सर्वप्रथम विश्वास खो देते हैं और उसके बाद ईश्वर या प्रकृति के बनाये हुए विधान को चुनौती देते हैं। यह विधान कुछ और नहीं बल्कि प्रकृति का नियम ही होता है। इसका पहला पाठ यह है कि मनुष्य कर्म करके ही अच्छे या बुरे फल की प्राप्ति करता है। इसे ही वैज्ञानिक सोच कहते हैं जिसमें हर फल के पीछे सशक्त तर्क होता है। यह तर्क शक्ति ही मनुष्य का विकास करती है और उसे अच्छे कर्म करने के लिए प्रेरित करती है। यह तर्क शक्ति ही प्रत्येक कार्य का विश्लेषण करती है और उसके हानि-लाभ बताती है परन्तु विकास का अर्थ हमने केवल भौतिकतावादी सुविधाओं से ले लिया है। भौतिक सुखों की अन्धी दौड़ में मनुष्य लगातार इस कदर बावला होता जा रहा है कि वह भाग्य को भी एक कर्म समझने लगा है।
इसी क्रम में वह अंधविश्वासों के फेर में पड़ता जाता है और जादू-टोने को भी एक विद्या समझने लगता है। जबकि हकीकत में यह ठगी का ऐसा कुकृत्य है जिसमें मनुष्य की तर्कशक्ति का लोप कर दिया जाता है। जिस तरह हम जादूगरी को ‘हाथ की सफाई’  का खेल मानते हैं और किसी जादूगर के कारनामें देख कर कुछ क्षण के लिए अचम्भित हो जाते हैं उसी प्रकार तन्त्र-मन्त्र की विद्या भी कुछ क्षणों के लिए मनुष्य के मस्तिष्क को प्रभावित करके उसकी निराशा का दोहन करती है और विवेकहीन व तर्कहीन बना डालती है। भौतिक या पदार्थवादी सोच कहती है कि पूरी दुनिया में किसी भी वस्तु की उत्पत्ति दो विपरीत वस्तुओं की प्रक्रिया से होती है। जिस प्रकार बढ़ई लकड़ी को छांट कर सुन्दर कलाकृतियां या फर्नीचर बनाता है उसी प्रकार हर नई वस्तु का निर्माण होता है। तन्त्र-मन्त्र में जब किसी लकड़ी को मेज या कुर्सी बनाने तक की शक्ति नहीं है तो वह ‘हांड- मांस’ से बने शिशु की उत्पत्ति कैसे कर सकता है? परन्तु हमारे समाज में गजब हो रहा है, मनुष्य अपनी सांसारिक जरूरतों की आपूर्ति के लिए तन्त्र-मन्त्र पर विश्वास कर रहा है।
दुखद यह है कि महानगरों तक में ऐसे लोग भरे पड़े हैं जो गूढ़ अंधविश्वासी हैं और तांत्रिकों की शरण में जाकर अपनी विफलताओं को सफलताओं में बदलना चाहते हैं। किसी भी देश का विकास सिर्फ उसकी धन-दौलत से नहीं होता और न ही सामरिक शक्ति से होता है। विकास का असली पैमाना उस देश के लोग होते हैं क्योंकि उन्हीं को मिला कर किसी भी देश का निर्माण होता है। अतः इन लोगों के मानसिक विकास का राष्ट्र के विकास से प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है और इस विकास का सम्बन्ध वौज्ञानिक सोच से होता है। मुगल काल तक भारत विश्व का सबसे विकसित व धनाड्य देश था परन्तु धीरे-धीरे अंग्रेजों ने इसे वैज्ञानिक सोच व वैज्ञानिक तकनीकों से दूर रखते हुए दुनिया का गरीब मुल्क बना दिया।  पूरे दो सौ साल तक अंग्रेजों के शासन के दौरान भारतीयों को वैज्ञानिक खोजों और टैक्नोलोजी से दूर रखा गया और उन्हीं अंग्रेजों ने इसकी शोहरत एक सपेरों व जादूगरों के मुल्क के तौर पर की।  यहां के लोगों को उसने अंधविश्वासी बनाये रखने में अपनी भलाई समझी और इन्हें जाति-बिरादरी व फिरकों में बंटे रहने की पूरी छूट भी दी। अंग्रेजी राज के भीतर जो राजे-रजवाड़े थे वे लोगों में अंध विश्वास को इस तरह जमाते थे कि आम जनता तन्त्र-मन्त्र के चक्करों में ही पड़ी रह कर निजी विकास की कल्पना तक न कर पाये। इस मायने में तन्त्र-मन्त्र में विश्वास ने सामन्ती समाज में मनुष्य के विकास की संभावनाओं को निगला और उसे भाग्यवादी बनने पर मजबूर किया।
भारत का संविधान ऐसा विकासमूलक दस्तावेज है जिसमें वैज्ञानिक सोच के विकास को किसी भी सरकार की जिम्मेदारी बताया गया है। आस्था  और अंधविश्वास में बहुत महीन अंतर होता है और तांत्रिक व मांत्रिक इसी अंतर का लाभ उठाने से नहीं चूकते। क्या गजब की सोच पैदा की गई कि कोई स्त्री किसी दूसरी स्त्री के केवल साढ़े तीन वर्ष के बालक की बलि देखर गर्भ धारण कर सकती है। धिक्कार है ऐसी मानसिकता रखने वाले लोगों पर जो ऐसे कृत्यों में विश्वास कर लेते हैं और दूसरे को दुःख देकर अपने सुख की कामना करते हैं। बलि या कत्ल ऐसा कृत्य होता है जिसकी भरपाई कोई नहीं कर सकता। मगर अन्धविश्वास मतिहीनता जागृत करता है और व्यक्ति को स्वार्थ में पिशाच तक बना डालता है। भारत में किसी भी प्रकार के अन्धविश्वास फैलाने वालों के विरुद्ध सख्त कानून की जरूरत अर्से से महसूस की जा रही है परन्तु सितम तो यह है कि विभिन्न राज्यों में उन लोगों को समाज विरोधी तत्वों ने अपना निशाना बनाने में पूरी बेगैरती दिखाई जो लोगों में वैज्ञानिक सोच पैदा करने की मुिहम चला रहे थे। एक बात स्पष्ट है कि भारत तभी सच्चा विकास करेगा जब इसके लोगों में वैज्ञानिक सोच पैदा होगी और वे जाति-पाति व ऊंच-नीच के भेद से बाहर आयेंगे और अंधविश्वासों को जड़ से उखाड़े फेंकेंगे। 

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