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कहां गए बचपन के वो चंदा मामा….

किसी फिल्म के गीत की पंक्ति है, “बचपन के दिन भी क्या दिन थे, उड़ते-फिरते तितली बन के! बचपन!” वे भी क्या दिन थे सच में, क्या ज़माना था। हम लोग उस समय लकड़ी की तख्ती पर, पहले उसे मुल्तानी मिट्टी से दोनों ओर पोतते थे और फिर एक ओर, सरकंडे के कलम से टीन की स्याही की दवात में डुबो कर, “अलिफ”, “बे”, “ते” लिखते और दूसरी ओर “क”, “ख”, “ग” लिखते, जिससे लेखन शैली आज भी बड़ी सुंदर है। उसी प्रकार से अंग्रेज़ी का लेखन कलम नुमा होल्डर में “जी” की निब लगा कर, टीन की दवात में स्याही के लिए नीली गोलियां पानी में घोल कर उसे तैयार किया करते थे और चार लाईनों की अभ्यास पुस्तिका पर लिखा करते थे, जिसे अंग्रेज़ी में “कार्सिव राइटिंग” भी कहा जाता है। हां, यह एक अलग बात है कि आज उस तख्ती और काग़ज़ पर सरसराहट करते सरकंडे की लेखनी का स्थान लोहे के कलम अर्थात् कंप्यूटर ने हथिया लिया है।
अंग्रेज़ी में एक मुहावरा बचपन के संबंध में कहता है कि यह जीवन तालिका का सुनहरी दौर होता है और इसी दौर में, लगभग प्रत्येक व्यक्ति का जुड़ाव किसी न किसी बाल पत्रिका से होता था, भले ही वह किसी भी भाषा में हो, उर्दू, हिंदी, अंग्रेजी, बंगला, असमिया, कन्नड़ आदि हो! ऐसा लगता है कि रेडियो, ट्रांजिस्टर और ब्लैक एंड व्हाइट टीवी पर अमीन सायानी, सलमा सुल्तान आदि की खबरें और उन दिनों के बच्चों के खेल, जैसे, “कोड़ा जमाल शाही”, “ऊंच-नीच का पहाड़ा”, “मारम पिट्टी”, “आंख मिचौली”, “लट्टू-चकई” और “रंगीन पन्नी” उड़ाने के मैच आदि कल की ही बात हो। आज ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे, पल भर में, पलक झपकते ही छह दशक निकल गए।
चंद बाल पत्रिकाओं के नाम इस प्रकार हैं, चंदामामा, पराग, बाल भारती, लोटपोट, चंपक, राजा भैया, नंदन, मिलिंद, मधु मुस्कान, इंद्रजाल कॉमिक्स, सुमन सौरभ आदि (सभी हिंदी), खिलौना, पयाम-ए-तालीम, नूर, चंदानगरी, टॉफी, जन्नत का फूल, गुंचा आदि (सभी उर्दू), चिलड्रेंस वर्ल्ड, एंजॉय (अंग्रेजी) आदि। लगभग हम सभी ने अपने बचपन में इन्हें पढ़ रखा है, बल्कि इनमें से काफ़ी की पुरानी प्रतियां भी उसने एकत्रित कर रखी हैं, जिन्हें वह अपना कीमती खज़ाना समझता है।
एक समय था कि वह बचपन में वह पहले बाज़ार बल्लीमारान, चांदनी चौक, पुरानी दिल्ली के ‘तालीमी समाजी मरकज’ में पढ़ता था, जहां उसने उर्दू-हिंदी सीखी, फिर उसे करोल बाग़ के जे.डी. टाईटलर स्कूल में दाखिल करा दिया गया, जहां से उसके बचपन का सुनहरी दौर शुरु हुआ, जिसमें वह हिंदी, उर्दू व बाल पत्रिकाओं और कहानियों की किताबों में खो गया।
उस समय पुरानी दिल्ली में ज़िंदगी के कुछ और ही मज़े हुआ करते थे। ऐसे फल बिका करते थे कि जिन्हें न तो आज के बच्चों ने देखा होगा और न ही उनके बारे में सुना होगा। एक फल होता था, छोटे बेर की तरह, जिसके ऊपर काले बाल हुआ करते थे और जो अंदर से सफेद रंग का और कम मीठा हुआ करता था। ऐसे ही खीरनी हुआ करती थी, जो पीले रंग की और छोटे अंगूर की तरह होती थी। इसे बर्फ़ की सिल्लियों पर सजा कर बेचा जाता था।
हमारे यहां बचपन में घर पर कई अखबारों के साथ कई बाल पत्रिकाओं का भी चलन था। महीने की पहली तारीख़ पर भारत का ही नहीं बल्कि विश्व की बच्चे की सबसे लोकप्रिय मासिक पत्रिका, ‘खिलौना’ आया करती थी, जिसे अख़बार वाले सलीम भाई अखबार के साथ हमारे यहां डाल देते थे। इसकी बड़ी बेचैनी से इसलिए प्रतीक्षा रहती थी कि इसमें बच्चों की दिलचस्पी का सभी सामान रहता था, चाहे वह “चित्र कथा” हो, “बूझो तो जानें” पहेलियां हों, “मुस्कुराहटें” नामक चुटकुले हों, “उनवान बताओ”, अर्थात् शीर्षक प्रतियोगिता हो, “रंग भरो” प्रतियोगिता हो “तुम पूछो हम बताएं” प्रश्नोत्तरी हो, कविताएं या कहानियां व नाटक हों, इस उर्दू पत्रिका का जवाब नहीं था।
चन्दामामा बच्चों व युवाओं पर केंद्रित एक लोकप्रिय मासिक पत्रिका है जिसमें भारतीय लोककथाओं, पौराणिक तथा ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित कहानियां प्रकाशित होती हैं। 1947 में इस पत्रिका की स्थापना दक्षिण भारत के नामचीन फिल्म निर्माता बी नागी रेड्डी ने की, उनके मित्र चक्रपाणी पत्रिका के संपादक बने। 1975 से नागी रेड्डी के पुत्र विश्वनाथ इस का संपादन करते हैं। मार्च 2007 में मुम्बई स्थित सॉफ्टवेयर कंपनी जीयोडेसिक ने पत्रिका समूह का अधिग्रहण कर लिया। जुलाई 2008 में समूह ने अपनी वेबसाईट पर हिन्दी, तमिल व तेलगु में पत्रिका के पुराने अंक उपलब्ध कराने आरंभ किये।
इसी प्रकार की सामग्री बच्चों की हिंदी की पत्रिकाओं, जैसे पराग, बाल भारती, लोटपोट, चंपक, राजा भैया, नंदन, मिलिंद, मधु मुस्कान आदि में हुआ करती थीं। हम बचपन से ही इन पत्रिकाओं में लिखता चला आ रहा है। जो बच्चे इन बाल पत्रिकाओं को पढ़ते थे, उनकी मानसिक व आध्यात्मिक उठान बहुत सटीक होती थी और शारीरिक तौर से भी वे हृष्ट-पुष्ट होते थे, ऐसे तो अधिकतर पत्रिकाएं आज भी बच्चों की कुछ पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं, जैसे नंदन, चंपक, देव भूमि आदि। इनकी संख्या अब बहुत कम हो गई है, क्योंकि अब पूरी दुनिया स्मार्ट फ़ोन पर ही मिल जाती है।

– फ़िरोज़ बख्त अहमद 

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