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न्यायाधीश साहसी बने रहें

सर्वोच्च न्यायालय की सेवा से रिटायर होने वाले न्यायमूर्ति श्री संजय किशन कौल का यह कहना भारतीय लोकतन्त्र की जड़ों को मजबूती देने वाला है कि न्यायाधीशों को बेधड़क होकर बिना किसी बेखौफ-ओ-खतर के निष्पक्ष फैसले करने चाहिए क्योंकि उन्हें संवैधानिक संरक्षण मिला होता है। हमारे लोकतन्त्र की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसके महत्वपूर्ण स्तम्भ न्यायपालिका को पूरी तरह स्वतन्त्र रखा गया है और राजनैतिक दलों की बनने वाली सरकारों के प्रभाव से इसे अलग रखते हुए सीधे संविधान से शक्ति लेकर अपना दायित्व पूरा करने का कार्यभार सौंपा गया है। श्री कौल आगामी 25 दिसम्बर को रिटायर हो रहे हैं और 18 दिसम्बर से सर्वोच्च न्यायालय के 2 जनवरी तक के लिए जाड़े की छुट्टियां हो रही हैं। रिटायर होने से पूर्व पारंपरिक विदाई समारोह में मुख्य न्यायाधीश श्री डी.वाई. चन्द्रचूड की मौजूगी में न्यायमूर्ति कौल ने ये विचार व्यक्त करके साफ कर दिया कि यदि मौजूदा शासन प्रणाली में न्यायाधीश ही अपना कार्य बिना किसी पक्षपात और खौफ के नहीं करेंगे तो शेष प्रशासकीय ढांचे से एेसी अपेक्षा नहीं की जा सकती। अतः जजों या न्यायाधीशों को ‘दिलेर’ या ‘साहसी’ होना चाहिए।
श्री कौल के मत में न्यायाधीशों का साहसी होना पूरे प्रशासनिक तन्त्र की निष्पक्षता के लिए बहुत जरूरी होता है। वर्तमान सर्वोच्च न्यायालय की न्यायाधीश मंडली में श्री कौल की प्रतिष्ठा अत्यन्त विशिष्ट व गौरवमयी मानी जाती है। उन्होंने जितने भी निर्णय दिये उनमें उनके निष्पक्ष व्यक्तित्व की झलक भी स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है। कश्मीर के अनुच्छेद 370 समाप्त करने के पक्ष में उनके दिये गये फैसले में भी यह छाप दिखाई पड़ती है। उन्होंने अपने फैसले में 370 को समाप्त किये जाने के हक में फैसला देते हुए यह भी लिखा कि जम्मू-कश्मीर राज्य में नागरिकों पर हुई कथित ज्यातियों की जांच के लिए एक ‘सत्य व सान्त्वना आयोग’ को भी गठित किये जाने की जरूरत है। वैसे अगर गौर से देखा जाये तो स्वतन्त्रता के बाद भारत की न्यायपालिका का इतिहास बहुत ही गौरवशाली और गरिमामय रहा है केवल अपवाद के रूप में इमरजेंसी के 18 महीने के कार्यकाल को जरूर देखा जा सकता है। देश की इस सबसे बड़ी अदालत के न्यायमूर्तियों में समय पड़ने पर देश के लोकतन्त्र की मजबूती के लिए बड़े से बड़ा कदम उठाने में भी हिचकिचाहट नहीं दिखाई दी और अपने पद के स्तर को हमेशा निष्पक्ष बनाये रखने के लिए सामूहिक इस्तीफे तक दिये हैं। जैसा कि 1974 में केन्द्र की इन्दिरा गांधी सरकार के कार्यकाल के दौरान एक कनिष्ठ न्यायाधीश श्री अजितनाथ राय को मुख्य न्यायाधीश के पद पर बैठाने के विरोध में चार न्यामूर्तियों ने इस्तीफे दे दिये थे। इस घटना ने भी देश के लोकतन्त्र प्रेमियों को प्रेरणा देने का कार्य बहुत भीतर तक किया था। इससे पूर्व 1969-70 में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने लोकप्रिय जन अवधारणा की परवाह न करते हुए केवल संविधान और कानून की कसौटी पर इन्दिरा सरकार द्वारा 14 निजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण व राजा- महाराजाओं के प्रिविपर्स उन्मूलन के सरकारी फैसलों को भी अवैध करार दे दिया था। हालांकि इन्हीं मुद्दों पर 1971 में हुए लोकसभा चुनावों में इन्दिरा जी की पार्टी कांग्रेस की महाविजय हुई थी और बैंक राष्ट्रीयकरण व प्रिविपर्स उन्मूलन का विरोध करने वाली पार्टियों जनसंघ, स्वतन्त्र पार्टी, संसोपा व संगठन कांग्रेस के चौगुटा गठबन्धन को करारी हार का सामना करना पड़ा था। बाद में संविधान संशोधन करके ही ये दोनों फैसले लागू किये गये थे। इसके अलावा सर्वोच्च न्यायालय ने कई और एेतिहासिक फैसले दिये जिनमें संविधान के मूल ढांचे को न बदलने का निर्णय शामिल है।
भारत के लोकतन्त्र को सर्वदा जीवन्त व कानून परक बनाये रखने के लिए और संविधान निर्माताओं के दूरदृष्टि मूलक फैसलों को हर काल में सामयिक बनाये रखने का यह निर्णय बहुचर्चित गोलकनाथ मामले में दिया गया था। इसके अलावा महाराज सिंह भारती मामले में बन्दी प्रत्यक्षीकरण का मुकदमा भी मील का पत्थर बना हुआ है। सच तो यह है कि सर्वोच्च न्यायालय भारत की स्वतन्त्रता के पिछले 76 सालों में ‘अभयदीप’ बन कर लोकतन्त्र के दो अन्य खम्भों विधायिका व कार्यपालिका को दिशा दिखाने का काम करता रहा है। देश की राजनीति बदलने का इस पर कोई असर नहीं पड़ता और यह संसद द्वारा बनाये गये कानूनों को भी संविधान की कसौटी पर कस कर उहें वैध या अवैध घोषित करता रहा है।
न्यायपालिका की मुख्य चिन्ता पूरे भारत में संविधान का शासन देखने की रही है और यह कार्य हर दौर में उसने पूरी मुस्तैदी के साथ किया है। जहां तक निचले स्तर की न्यायपालिका का सवाल है तो इसकी कार्यप्रणाली में विशेष कर आपराधिक मुकदमों के सन्दर्भ में इसमें बहुत सुधारों की जरूरत 60 के दशक से ही महसूस की जाती रही है। इसकी तरफ पहली बार इशारा स्व. चौधरी चरण सिंह ने 1969 में तब किया था जब उन्होंने इस वर्ष अपनी नई पार्टी ‘भारतीय क्रान्ति दल’ बनाई थी और इनके घोषणापत्र में ‘कोर्ट-कचहरी’ के कामकाज में प्रशासनिक व न्यायिक सुधारों की बात लिखी थी। इन सुधारों की गूंज हमें अब 52 साल बाद भी सुनाई पड़ रही है जिसे स्वयं सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.वाई. चन्द्रचूड ही करते हुए दिख रहे हैं। अतः न्यायमूर्ति कौल के कथन को व्यापक सन्दर्भों में देखने की आवश्यकता है।
संवैधानिक संरक्षण परोक्ष रूप से हमारी कार्यपालिका को भी मिला होता है क्योंकि हर जिले का जिलाधीश और पुलिस कप्तान भी संविधान की शपथ ही लेता है। मगर उसे राजनैतिक नेतृत्व के निर्देशन में काम करना पड़ता है। इसकी वजह से कई पेचीदगियां पैदा हो जाती हैं जिनका सम्बन्ध सीधे राजनीति के ‘स्तर’ और राजनीतिज्ञों के ‘’चरित्र’’ से जाकर जुड़ता है।

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