इस्राइल विश्व के मानचित्र पर एक बहुत छोटा सा लगभग एक करोड़ की आबादी वाला ऐसा देश जरूर हो सकता है जिसे 1948 में दुनिया भर के यहूदियों के लिए उनके हक के तौर पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने बनाया था मगर यह पूरी अरब दुनिया के बीच में बसा हुआ ऐसा आधुनिक व प्रगतिशील राष्ट्र है जिसकी वैज्ञानिक सोच के आधार पर अपनाये गये लोकतन्त्र को पूरी दुनिया नजरंदाज नहीं कर सकती। इसमें रहने वाले हर नागरिक के अधिकार इस हकीकत के बावजूद हैं कि यह मूल रूप से यहूदियों का ही देश है और दुनिया के किसी भी कोने में रहने वाला यहूदी मूल का व्यक्ति इसे अपना देश बना सकता है। इस देश में आजकल स्वतन्त्र न्यायपालिका के अस्तित्व को लेकर जिस तरह का कोहराम मचा हुआ है वह सभी लोकतान्त्रिक व न्यायप्रिय देशों के नागरिकों के लिए एक बेमिसाल नजीर है। इस देश के वर्तमान साझा सरकार के प्रधानमन्त्री श्री बेंजिन नेतन्याहू यहां कार्यरत न्यायपालिका को सरकार का हिस्सा बनाने की गरज से इसके न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार अपने हाथ में यहां की संसद ‘नेसे’ जरिये लेना चाहते हैं जिसका सबसे कड़ा विरोध उन्हीं की लिकुद पार्टी के वरिष्ठतम नेता व रक्षामन्त्री श्री योव गैलेंट ने किया जिन्हें श्री नेतन्याहू ने अपने मन्त्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया परन्तु इसके बाद पूरे इस्राइल में नागरिक संघर्ष का खतरा खड़ा हो गया और पहले से ही विरोध में सड़कों पर निकले लोगों के बीच गुस्सा और बढ़ने की आशंका पैदा हो गई जिसका संज्ञान इस देश के संवैधानिक मुखिया राष्ट्रपति श्री इशका हेरजोग ने भी लिया और प्रधानमन्त्री से अपील की कि वह अपनी न्यायिक परिवर्तन करने की जिद को छोड़ दें क्योंकि इससे न केवल नागरिक संघर्ष बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा और आर्थिक सुरक्षा को भी खतरा पैदा हो गया है। उनकी इस अपील के बाद नेतन्याहू ने अपने कदम को पीछे हटाने का फैसला किया जिससे इस्राइल में हालात बदलने के आसार पैदा हो सकते हैं।
नेतन्याहू की न्यायिक बदलाव या परिवर्तन की नीति का संसद से लेकर सड़क तक विरोध इस प्रकार हो रहा था कि उनकी सरकार जाने का खतरा पैदा हो गया था और लिकुद पार्टी के नेतृत्व में सत्तारूढ़ गठबन्धन के बीच ही दरारें पड़ने लगी थीं। राष्ट्रपति के हस्तक्षेप के बाद इस्राइली संसद में उनकी सरकार के विरुद्ध विपक्ष ने अविश्वास प्रस्ताव भी रखा जो इस वजह से गिर गया क्योंकि नेतन्याहू ने न्यायपालिका के मामले में सीधे हस्तक्षेप करने की नीति वापस ले ली थी। इस्राइल में न्यायपालिका की संरचना में बदलाव या उलटफेर का भारी विरोध इस देश की जनता ही कर रही थी और लाखों की संख्या में लोग सड़कों पर निकल कर न केवल इसका विरोध कर रहे थे बल्कि विभिन्न देशों में इस्राइली दूतावासों व वाणिज्य दूतावासों के राजदूतों से लेकर अन्य कर्मचारी तक इसका विरोध कर रहे थे। पूरे देश में अफरा-तफरी का माहौल बन चुका था और इस देश के अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डों तक से पिछले दो दिनों में उड़ाने रद्द हो चुकी थीं। इसके साथ ही विश्वविद्यालयों से लेकर स्कूल-कालेजों में पढ़ाई ठप्प हो गई थी और सभी वाणिज्यिक संस्थानों में भी काम बन्द हो गया था। इस देश के सबसे बड़े मजदूर संगठन ने बैंकिंग क्षेत्र से लेकर स्वास्थ्य व माल सप्लाई में कार्यरत लोगों से आन्दोलन करने का आह्वान कर दिया था। परिणामस्वरूप सर्वत्र आन्दोलन व काम बन्द का माहौल बन गया था। जिसकी वजह से राष्ट्रपति श्री हेरजोग को परिस्थितियों का संज्ञान लेना पड़ा और प्रधानमन्त्री से कहना पड़ा कि वह अपनी हठ छोड़ कर विपक्ष व अन्य लोकतान्त्रिक संस्थाओं के साथ संवाद का राब्ता कायम करें और समस्या का हल निकालें।
इस्राइल में संसदीय लोकतन्त्र है और इसकी संसदीय विरासत को परिष्कृट करने वाले स्व. श्रीमती गोल्डा मेयर से लेकर नोशे दायां जैसे नेता भी हुए हैं जिन्होंने अपने देश के लोकतन्त्र को मजबूत करते हुए स्वतन्त्र न्यायपालिका के संस्थान को पाला-पोसा। हालांकि लिकुद पार्टी रूढ़ीवादी पार्टी ही मानी जाती है और इसका फिलहाल जिन अन्य पार्टियों से गठबन्धन है वे प्रायः धार्मिक रूप से कट्टरपंथी पार्टियां मानी जाती हैं मगर इस्राइल की जनता मूल रूप से लोकतन्त्र के सिद्धान्तों में यकीन रखने वाली मानी जाती है जिसकी वजह से इस देश में ऐसी स्थिति बनी। अतः नेतन्याहू ने जब अपना कदम पीछे उठाने का ऐलान कर दिया तो विपक्ष के नेता श्री यायिर लैपिद ने कहा कि वह प्रधानमन्त्री से इस मुद्दे पर अब विचार करने के लिए राजी हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि लोकतान्त्रिक संवाद प्रक्रिया के जरिये इस्राइल में पुनः शान्ति बहाल होगी क्योंकि भारत के साथ इस देश के सम्बन्ध मधुर माने जाते हैं हालांकि दोनों देशों के बीच दौत्य सम्बन्ध 90 के दशक के शुरू में ही स्थापित हुए थे।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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