लोकतन्त्र का ‘सुरक्षा यन्त्र’ - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

लोकतन्त्र का ‘सुरक्षा यन्त्र’

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भारत में लोकतन्त्र की जड़ें इतनी गहराई तक फैली हुई हैं कि जब भी इसके चारों स्तम्भों में कोई स्तम्भ गफलत में आता है तो दूसरा स्तम्भ उठकर उसे झिंझोड़ डालता है और एेलान कर देता है कि यह मुल्क उसी रास्ते पर चलेगा जो इसे गांधी बाबा ने दिखाया था। इस लोकतन्त्र में वैचारिक भिन्नता और मतभेद की इस हद तक खुली इजाजत है कि बिना हिंसक रास्ता अख्तियार किये या इसे मदद अथवा उकसाने का काम किये हर व्यक्ति या संगठन को भारत में उस समता मूलक समाज काे स्थापित किये जाने में अपना योगदान देने का हक है जिसकी वकालत संविधान करता है। हाल ही में महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में इस साल के शुरू में हुई हिंसा के सम्बन्ध में पुणे पुलिस ने जिन पांच बुद्धिजीवियों को गिरफ्तार किया उसका मूल्यांकन इसी कसौटी पर करते हुए देश के सर्वोच्च न्यायालय ने घोषणा की कि मतभिन्नता प्रजातन्त्र का एेसा सुरक्षा कवच है जिसके न होने से इसके तहत गठित पूरे तन्त्र में ही विस्फोट हो जायेगा। अतः न्यायमूर्तियों ने आदेश दिया कि पुलिस इन पांचों व्यक्तियों को अगली सुनवाई होने तक ज्यादा से ज्यादा उनके घरों में ही नजरबन्द रख सकती है और हिंसा में संलिप्त होने के उनके खिलाफ जमा किये गये सबूतों की संभाल कर सकती है।

जिन पांच लोगों को गिरफ्तार किया गया है वे सभी दलित व आदिवासी लोगों के हकों के पैरोकार रहे हैं और मानवीय अधिकारों की अलम्बरदारी में वामपंथी विचारों के हिमायती रहे हैं। ये हैं सर्वश्री वरावरा राव (कवि), गौतम नवलखा ( पत्रकार), वरनान गोंजालविज व अरुण फेरेरिया (प्रोफेसर) व श्रीमती सुधा भारद्वाज (वकील)। इनके अलावा चार और अन्य सामाजिक न्याय की लड़ाई को अपने विचारों के तहत अंजाम देने वाले व्यक्तियों के घरों पर भी पुलिस ने छापेमारी की थी। राजनैतिक उद्देश्यों के लिए किसी भी प्रकार की हिंसा में शामिल होने या उसे भड़काने अथवा मदद देने के सबूतों पर पुलिस को संदिग्ध व्यक्तियों को गिरफ्तार करने का हक कानून तब देता है जब उसके पास इस बारे में पुख्ता सबूत एेसे हों जो न्यायिक कसौटी पर खरे उतर सकें मगर यह समझा जाना जरूरी है कि कानून आम जनता के लिए होता है, पुलिस उसे केवल लागू करती है परन्तु इनमें से वरनान गोंजालविज और अरुण फेरेरिया को पिछली मनमोहन सरकार के दौरान भी माओवादी व नक्सलवादी गतिविधियों में शामिल होने के लिए गिरफ्तार किया गया था।

श्री गोंजालविज को हथियार रखने के जुर्म में सत्र अदालत ने जेल की सजा भी सुनाई थी मगर श्री फेरेरिया पर 2007 में लगाये गये राष्ट्रद्रोह समेत 11 गंभीर आरोप अदालत ने पूरी तरह खारिज कर दिये थे। इसके बावजूद उन्हें चार साल जेल में काटने पड़े थे। यह स​ब पिछली मनमोहन सरकार के दौरान ही हुआ था। भीमा कोरेगांव हिंसा को लेकर नौ महीने बाद पुणे पुलिस ने किसी व्यक्ति द्वारा दायर की गई ‘एफआईआर’ पर जिस तरह फुर्ती दिखाते हुए छापेमारी की उसने राजनीतिक रंग ले लिया जबकि भीमा कोरेगांव हिंसा का मुख्य रचनाकार कहा जाने वाला संभाजी भिडे स्वतन्त्र घूम रहा है। दरअसल इस हिंसा से पहले जिस तरह सर्वोच्च न्यायालय के ही अवकाश प्राप्त न्यायाधीश श्री पीबी सावन्त आदि की सदारत में जिस नवगठित संगठन ‘एलगार परिषद’ की बैठक हुई थी उसमंे सिर्फ दलितों को अधिकार दिलाने व मराठा नागरिकों के साथ सामाजिक समरसता स्थापित करने पर विचार हुआ था। इस सम्मेलन में गिरफ्तार पांचों व्यक्तियों में से एक भी इसमें शरीक नहीं हुआ था परन्तु पुलिस के अनुसार सम्मेलन में हिंसा को बढ़ावा देने की योजना पर विचार हुआ।

सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण है कि पुलिस हिंसा के नौ महीने बाद ही हरकत मे क्यों आयी? यह सिद्ध करता है कि भारत में सिर्फ कानून का राज ही चलेगा, जो इसके लोकतन्त्र का मूलाधार है। भारत के फौजदारी कानून का यह भी आधार है कि किसी भी निर्दोष को किसी भी हालत में सजा नहीं होनी चाहिए चाहे दस खतावार छूट जाएं मगर यह पूरा मामला इतना सरल नहीं है जितना ऊपर से दिखाई पड़ रहा है क्योंकि श्रीमती सुधा भारद्वाज एेसी वकील हैं जो छत्तीसगढ़ जैसे नक्सल प्रभावित राज्य में आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन के हकों के बारे में न्यायालयों में उनकी तरफ से लड़ती रही हैं। दुनिया जानती है कि इस आदिवासी राज्य की ‘धनवान’ धरती के ‘गरीब’ लोगों के अधिकारों पर आर्थिक उदारीकरण के चलते जिस तरह कार्पोरेट कम्पनियों का हमला हुआ है और राजनीतिज्ञों ने चांदी कूटी है, उसके चलते ही यहां नक्सली समस्या लगातार बनी हुई है और हद तो यह है कि बस्तर जैसे इलाके में आज भी नक्सलियों का ही समानान्तर शासन चलता है। यह काम बिना राजनैतिक प्रश्रय के नहीं हो सकता। कमाल तो यह है कि इस राज्य में राजनैतिक दलों की हार-जीत और उनकी सरकार बनना इस बात पर निर्भर करता है कि नक्सली इलाकों मंे कितना मतदान हुआ है? संविधान निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर ने जब इसमें पांचवंे अनुच्छेद का प्रावधान किया था तो आदिवासी इलाकों के लोगों की सांस्कृतिक व सामाजिक स्वतन्त्रता को बरकरार रखने की पुख्ता व्यवस्था इस प्रकार की थी कि राष्ट्रपति के निर्देशन में राज्यों के राज्यपाल सीधे उनके अधिकारों की देखभाल कर सकें। इस अनुच्छेद को तब संविधान के भीतर संविधान कहा गया था मगर यही भारत की विविधता का वह प्रमाण था जो झारखंड के छोटा नागपुर के सपूत ‘स्व. कैप्टन जयपाल सिंह’ के संविधान सभा में किये गये प्रयासों से रंग लाया था लेकिन संविधान की इस व्यवस्था का लेखा-जोखा करने से हम हमेशा पीछे हटते रहे और गरीबों की अमीर धरती को 1991 के बाद से कार्पोरेट जगत के हवाले करते रहे।

बेशक नक्सलवाद की इस देश में रंचमात्र भी जगह नहीं है क्योंकि इन्हें न तो भारत के संविधान पर विश्वास है और न ही लोगों के मतों से बनी हुई सरकारों पर मगर हम तो अक्ल के पीछे लट्ठ लेकर चल पड़ते हैं और पं. जवाहर लाल नेहरू की इसी बात के लिए आलोचना करने लगते हैं कि उन्होंने 1951 के करीब ही लोकसभा गठित होने से पहले संविधान में पहला संशोधन अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को सीमित करने के लिए क्यों किया था? दूरदृष्टा नेहरू ने यह संशोधन आजादी मिलते ही इसलिए किया था जिससे स्वतन्त्र भारत में माओवाद या नक्सलवाद की समस्या कभी सिर ही न उठा सके अतः उन्होंने उन्हीं विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता दी जिसमें हिंसा को किसी भी सामाजिक या राजनैतिक बदलाव के लिए माध्यम बनाने की वकालत न की जाती हो। इस पर स्वयं डा. अम्बेडकर ने कहा था कि ‘अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की रौ में मैं इस तरफ सोच ही नहीं पाया।’ अतः हमें भविष्य का जो रास्ता तय करना है वह सिर्फ कानून का राज कायम करते हुए ही करना है और इस तरह करना है कि ‘अन्त्योदय, गांधीवादी समाजवाद और मार्क्सवाद’ जब भारत की धरती पर बोलें तो ‘हिंसा’ को ‘तड़ी पार’ करके ही बोलें। यही वजह थी कि 1952 के पहले चुनावों में भाग लेने से पहले संयुक्त कम्युनिस्ट पार्टी ने हिंसा के रास्ते बदलाव लाने के अपने सिद्धान्त को त्याग दिया था। अतः बहुत साफ है कि पांचों बुद्धिजीवियों की परीक्षा इसी कानून के विस्तृत और बाद में बनाये गये अन्य अनुषंगी कानूनों के तहत ही होगी मगर कौन कह सकता है कि विश्व प्रतिष्ठित ‘इकोनामिक एंड पालिटिकल वीकली’ जैसी पत्रिका का प्रतिष्ठित पत्रकार रहा गौतम नवलखा हिंसा की वकालत कर सकता है? वह तो कश्मीर समस्या का जन-भागीदारी से निदान करने के अलम्बरदार रहे हैं।

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