बिहार में 75 प्रतिशत आरक्षण - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

बिहार में 75 प्रतिशत आरक्षण

सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़ेपन को समाप्त करने के लिए भारत के संविधान में प्रभावित वर्गों के लिए ऐसे कदम उठाने का प्रावधान निहित है जिनसे इनका विकास व उत्थान हो सके और समाज में गैर बराबरी कम हो सके। इस तरफ सबसे पहला कदम अनुसूचित जातियों व जन जातियों को राजनैतिक आरक्षण देकर किया गया जिसका विस्तार बाद में शिक्षण संस्थानों में भी किया गया। इसका असर चौतरफा पड़ना ही था। धीरे-धीरे इन वर्गों के लोगों का आर्थिक सशक्तिकरण भी होता गया मगर इसकी गति बहुत धीमी है क्योंकि इन वर्गों को हजारों साल तक भारत में दबाकर रखा गया जिसकी वजह से समाज के इस तबके की समग्र विकास में भूमिका सर्वदा हाशिये पर ही खिसकी रही। मगर आजादी के बाद समाज के दूसरे उन वर्गों की अपेक्षाएं भी जागृत हुई जो मुख्य रूप से शैक्षणिक कारणों से हाशिये पर पड़े हुए थे। इसे पिछड़ा वर्ग कहा गया और 1990 में इनके लिए भी सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई। मगर हर राज्य में इस वर्ग के लोगों की जनसंख्या एक समान नहीं थी। अतः राज्य सरकारों ने इनकी जनसंख्या के अनुपात में शैक्षणिक व सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था की।
समाजवादी चिन्तक डा. राममनोहर लोहिया से लेकर अन्य प्रगतिशील विचारों के राजनीतिज्ञों ने इस बात की वकालत की कि राजनीति से लेकर सरकारी प्रशासन में विभिन्न जातियों व वर्गों की आबादी के अनुपात में उनकी हिस्सेदारी तय की जाये जिससे भारत का विकास सही अर्थों में समावेशी स्वरूप ले सके। इस सिद्धान्त की जबर्दस्त वकालत फिलहाल कांग्रेस के नेता श्री राहुल गांधी करते दिख रहे हैं और कह रहे हैं कि ‘जिसकी जितनी संख्या भारी-उतनी उसकी हिस्सेदारी’। मगर यह काम तब तक संभव नहीं हो सकता जब तक कि पूरे देश में जातिगत जनगणना न कराई जाये और उसमें पिछड़ों, दलितों व आदिवासियों की सही संख्या न निकाली जाये।
बिहार के जातिगत सर्वेक्षण में हालांकि अपेक्षा के मुताबिक ही आंकड़े निकल कर आये हैं और इसमें चौंकने वाली भी कोई बात नहीं है क्योंकि इस राज्य का सामाजिक ढांचा अत्यन्त दकियानूसी व रूढि़गत रीतियों व परंपराओं पर टिका हुआ है। कमोबेश यही हालत उत्तर प्रदेश के पूर्वी इलाके की भी है। मगर 2000 में बिहार से अलग करके बनाये गये झारखंड राज्य में सभी आदिवासी इलाके चले जाने के बाद राज्य में आदिवासियों की जनसंख्या दो प्रतिशत से भी कम रह गई है। दूसरी ओर पिछड़े व अति पिछड़े वर्ग की कुल जनसंख्या 60 प्रतिशत से ऊपर निकली है जिसमें अति पिछड़े 36 प्रतिशत से ऊपर हैं और सामान्य पिछड़े 27 प्रतिशत से ऊपर हैं। अतः इन दोनों समुदायों का आरक्षण कोटा बढ़ा कर क्रमशः 12 से 25 प्रतिशत और 8 से बढ़ाकर 18 प्रतिशत कर दिया गया है। इसी प्रकार राज्य में अनुसूचित जातियों या दलितों की जनसंख्या 19.65 प्रतिशत आयी है। वर्तमान में यह कोटा 14 प्रतिशत ही था जिसे बढ़ाकर 20 प्रतिशत कर दिया गया है। परन्तु आदिवासियों की जनसंख्या दो प्रतिशत से भी कम ही आयी है अतः उनका कोटा 2 प्रतिशत कर दिया गया है।
इस प्रकार शैक्षणिक संस्थाओं से लेकर सरकारी नौकरियों में इन वर्गों के लिए कुल आरक्षण 65 प्रतिशत हो गया है मगर भारत सरकार ने 10 प्रतिशत आरक्षण कथित ऊंची जातियों या सामान्य वर्गों के गरीबों के लिए भी किया हुआ है। उसे जोड़ कर कुल आरक्षण 75 प्रतिशत हो गया है। मगर अखिल भारतीय स्तर पर आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत सर्वोच्च न्यायालय ने बांधी हुई है। चूंकि यह आरक्षण राज्य सरकार द्वारा अपनी संवैधानिक अधिकार सीमा के तहत संवैधानिक प्रावधानों के तहत ही किया गया है। अतः इस पर 50 प्रतिशत सीमा का प्रतिबन्ध लागू होगा या नहीं यह देश के विधि विशेषज्ञों को देखना होगा। वैसे तमिलनाडु में भी 65 प्रतिशत के लगभग आरक्षण राज्य सरकार के संस्थानों व नौकरियों में बहुत समय से लागू है। इसके अलावा बिहार पूरे उत्तर भारत में पिछड़ों को आरक्षण देने वाला पहला राज्य भी है जब 1978 में इसके मुख्यमन्त्री समाजवादी नेता स्व. कर्पूरी ठाकुर बने थे तो उन्होंने मंडल कमीशन से बहुत पहले ही पिछड़ी जातियों के लोगों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की थी। देखने वाली बात यह होगी कि पूरे भारत में अब बिहार के 75 प्रतिशत आरक्षण की प्रतिध्वनि क्या निकलती है औऱ देश का जनमानस उसे किस रूप में लेता है। सर्वेक्षण में यह तथ्य निकल कर आया है कि बिहार की 33 प्रतिशत से अधिक आबादी केवल छह हजार रुपए मासिक से कम पर गुजारा करती है। नीतीश सरकार ने इन गरीब परिवारों को आर्थिक मदद देने के भी कुछ ऐलान किये हैं।

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