वन संरक्षण समय की जरूरत है। वन महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन हैं जो भूमि के बड़े हिस्से को कवर किए हुए हैं। वनों से ही मानव को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से लाभ मिलता है। जंगल वातावरण को संतुलित रखते हैं। वन्य प्रणियों को आश्रय इन्हीं से मिलता है। मनुष्य के दैनिक जीवन की चीजों की समुचित आपूर्त में वनों का महत्वपूर्ण योगदान है। जीवन की छोटी-छोटी जरूरतें और आयुर्वेदिक औषधियां भी वनों से ही प्राप्त होती हैं। जंगल शुद्ध प्राण वायु देते हैं इसलिए मनुष्य और समस्त जीव-जंतुओं के लिए यह प्रकृति द्वारा प्रदत्त अमूल्य धरोहर है। वनों को काट-काट कर बस्तियां बसाने का परिणाम हम देख रहे हैं। वनों का क्षेत्रफल घट जाने से पर्यावरण को काफी नुक्सान पहुंच चुका है। अब हमें लगातार प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है। वन संरक्षण का अर्थ वनों को विभिन्न कारकों द्वारा नष्ट होने से बचाना है। हाल ही में वन संरक्षण संशोधन विधेयक लोकसभा में पारित कर दिया गया। इस विधेयक को लेकर दो मुख्य चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं। पहली िचंता वनों की कानूनी परिभाषा काे लेकर है। दूसरी चिंता वनों पर निर्भर समुदाय के अधिकाराें और राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर भी है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि जंगल बचेंगे कैसे?
वर्ष 1980 का वन संरक्षण अधिनियम अपने संरक्षणवादी रुख के लिए जाना जाता था जिससे वन संबंधी मंजूरी प्राप्त करना अधिक समय लेने वाला और महंगा हो गया था। हालांकि नये संशोधन अधिनियम के दायरे को 25 अक्तूबर 1980 के बाद केवल कानूनी रूप से अधिसूचित और सरकार द्वारा िचह्नित वनों तक सीमित करता है। 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला दिया था जिसने 1980 के अधिनियम के दायरे को ‘वन’ के व्यापक अर्थ तक बढ़ा दिया था। अर्थात अब केवल कानूनी रूप से वन के रूप में अधिसूचित क्षेत्रों की बजाय पेड़ों वाले क्षेत्र भी इसमें शामिल होंगे।
वन संरक्षण संशोधन विधेयक अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं के 100 किमी. के भीतर सुरक्षा संबंधी बुनियादी ढांचे के लिए छूट प्रदान करता है। दुर्भाग्य से इसमें पूर्वोत्तर भारत के जंगलों और उच्च ऊंचाई वाले हिमालयी जंगलों और घास के मैदानों जैसे पारििस्थतिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों को शामिल नहीं किया गया है जो अपनी जैव विविधता के लिए जाने जाते हैं। जैव विविधता और पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने के लिए इन संवेदनशील पारिस्थितिक तंत्रों को संरक्षित करना अवश्यक है।
यह संशोधन चिड़ियाघर, सफारी पार्क और इको-पर्यटन सुविधाओं जैसी निर्माण परियोजनाओं के लिए छूट प्रदान करता है। यद्यपि कृत्रिम रूप से निर्मित हरित क्षेत्र प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र का स्थान नहीं ले सकते, जो आवश्यक पािरस्थितिक तंत्र सेवाएं प्रदान करते हैं। इसके अलावा विधेयक केन्द्र सरकार को किसी भी वांछित उपयोग को निर्दिष्ट करने की अप्रतिबंधित शक्तियां प्रदान करता है जिससे उचित पर्यावरणीय जांच के बिना वन संसाधनों के संभावित दोहन के बारे में चिंताएं बढ़ जाती हैं।
यह विधेयक मार्च महीने में 31 सदस्यीय संयुक्त संसदीय समिति मई में जेपीसी द्वारा जनता के सुझाव आमंत्रित किए गये थे। समिति ने विधेयक में कोई बदलाव प्रस्तावित नहीं किया था। हालांकि विपक्ष के 6 सांसदों ने असहमति नोट दाखिल किया था। उन्होंने सीमावर्ती क्षेत्रों में वन भूमि को अधिनियम के दायरे से छूट देने पर आपत्ति जताई थी जो विशेष रूप से हिमालय क्षेत्र में जैव विविधता और वन कवरेज के लिए हानिकारक हो सकता है। इस विधेयक के कानून बन जाने से मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, त्रिपुरा और मणिपुर के अत्यधिक संवेदनशील राज्यों के पूरे क्षेत्र को वन संरक्षण अधिनियम 1980 के सतर्कता दायरे से ही बाहर कर दिया जाएगा।
विशेषज्ञ बताते हैं कि प्रस्तावना के अनुसार, एफसीएबी का उद्देश्य कॉर्पोरेट के लिए मार्ग प्रशस्त करना और वाणिज्यिक उपयोग के लिए वन भूमि को खोलना है लेकिन पूर्वोत्तर क्षेत्र जो पांच देशों से घिरा है और अवर्गीकृत वन श्रेणी के तहत सबसे बड़ा क्षेत्र है, की तुलना में कहीं भी इसका इतना व्यापक प्रभाव नहीं होने वाला है। यह क्षेत्र एक जैव-विविधता हॉटस्पॉट के रूप में मान्यता प्राप्त है। वन संरक्षण के लिए आवाज उठाने वालों का कहना है कि सख्त मंजूरी नियमों के बिना इन नाजुक पहाड़ों पर परियोजनाओं और बुनियादी ढांचे के निर्माण की अनुमति देना, मौजूदा पारिस्थितिकी तंत्र को और भी अधिक खतरे में डाल देगा। उन्होंने कहा कि जहां एफसीएबी पूरे देश को प्रभावित करेगा वहीं पूर्वोत्तर राज्यों को इसका बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ेगा क्योंकि एफसी एक्ट 1980 के सुरक्षात्मक आवरण को ही हटाने का प्रस्ताव है।”नए कानून में, यदि अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं के 100 किलोमीटर के भीतर ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ और ‘राष्ट्रीय महत्व’ से संबंधित किसी भी बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए साइटों के रूप में वन भूमि को चुना जाता है तो उसे मौजूदा एफसी एक्ट 1980 के दायरे से बाहर करने की मांग की गई है। इसका मतलब है कि मिजोरम, नगालैंड, मणिपुर और त्रिपुरा पूरे के पूरे राज्य प्रभावित होंगे क्योंकि इन राज्यों का भौगोलिक आकार अंतर्राष्ट्रीय सीमा के किसी भी बिंदु से की गई गणना में 100 किलोमीटर से अधिक नहीं है।
अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि इन चिंताओं के बावजूद वन कानूनों को लेकर अधिकारी विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन कैसे बनाते हैं। हालांकि केन्द्र सरकार ने बार-बार यह कहा है कि वन अधिकारी अधिनियम का उल्लंघन नहीं होने देगा। सरकार को राष्ट्रीय सुरक्षा को भी देखना है और विकास को भी। इसलिए उसे संतुलन बनाकर चलना होगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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