कूटनीति में यह नियम सर्वविदित है कि इसके रास्ते कभी भी एक दरवाजे पर जाकर खत्म नहीं होते। यह अपने विकल्प विभिन्न मार्गों के लिए खुले रखती है। अतः अमेरिका की कूटनीतिक राजनीति को समझने के लिए यह तथ्य काफी है कि जब एक तरफ भारत के प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी आगामी 21 जून को अमेरिका की अपने पूरे शासनकाल में पहली बार चार दिवसीय राजकीय यात्रा पर जा रहे हैं तो अमेरिका ने उससे कुछ दिन पहले ही अपने विदेश मन्त्री एंटनी ब्लिंकन को चीन के दौरे पर भेजा हुआ है। एंटनी ब्लिंकन ने बीजिंग पहुंच कर वहां के विदेश मन्त्री शिन गैंग से जाे बातचीत की है उसे अमेरिका बहुत याथार्थमूलक व रचनात्मक बता रहा है। पिछले पांच वर्षों में किसी अमेरिकी विदेश मन्त्री की यह पहली चीन यात्रा है। इससे यह अन्दाजा तो लगाया जा सकता है कि अमेरिका की निगाह में इस यात्रा का महत्व कम नहीं है जो कि दोनों देशों के बीच विभिन्न वाणिज्यिक व अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों पर जाहिराना तल्खियों के बीच हुई है। चीन के साथ अमेरिका के सम्बन्ध आपसी व विश्व व्यापार को लेकर जिस तरह तनावपूर्ण होते रहे हैं उनसे सारा जग वाकिफ है । विशेषकर रूस- यूक्रेन युद्ध के चलते जिस तरह अमेरिका पश्चिमी देशों के सामरिक संगठन ‘नाटो’ की अगुवाई मेंचीन के रूसी खेमे में पहुंचने पर वैश्विक अर्थव्यस्था की धुरियां बदलने की कोशिश कर रहा है उससे यूरोपीय व एशियाई और अफ्रीकी देशों के कारोबारी माहौल में अवरोधों के नये–नये निशान उभर रहे हैं। इस हकीकत को अब दुनिया के सभी देश जानते हैं कि अमेरिका के बाद चीन ही पूरी दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है जिसकी वजह से वह अमेरिका के लिए एक मजबूत चुनौती भी है। अतः दोनों देशों की तरफ से एेसे संकेत भी दिये जाते हैं कि वे अपने–अपने रास्तों में सुधार करें। जहां तक चीन का मामला है तो पिछले 15 वर्षों के दौरान ही उसने ऊंची छलांग लगा कर पूरी दुनिया में अपनी औद्योगिक व वाणिज्यिक शक्ति की धाक जमाई है जबकि अमेरिका दूसरे विश्व युद्ध के बाद से ही अपनी ताकत बढ़ाता चला आ रहा है। 1990 तक उसे सोवियत संघ एक चुनौती लगता था मगर इसी साल इसके बिखर जाने से यह विश्व की एकल शक्ति बन गया जिसे चीन अब चुनौती दे रहा है। अमेरिका को चीन से घोषित समस्या ताइवान को लेकर है जिसे वह एक स्वतन्त्र शासी क्षेत्र मानता है मगर एकल चीन की नीति का भी समर्थन करता है। मगर दोनों देशों के बीच के इन सम्बन्धों की फांस व्यापारिक सम्बन्धों पर जाकर खुलती है। जिसकी वजह से अमेरिका व चीन के दौत्य सम्बन्ध तल्खी भरे दिखाई पड़ते हैं। मगर चीन के भारत का पड़ौसी होने की वजह से इसकी स्थिति बहुत रणनीतिक व संवेदनशील है। अमेरिका इस वास्तविकता को समझते हुए ही भारत के साथ अपने सम्बन्ध लगातार नई ऊंचाइयों पर पहुंचा रहा है जिसमें सबसे बड़ा आयाम दोनों देशों के बीच हुए परमाणु करार से जुड़ा था। यह समझौता डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में हुआ था। इस समझौते को उस समय न तो रूस ने और न ही चीन ने सकारात्मक रूप मंे लिया था। लेकिन भारत ने अपनी कूटनीति के माध्यम से इन दोनों देशों को उदासीन रुख अख्तियार करने के लिए बाध्य कर दिया। ब्लिंकन की वर्तमान चीन यात्रा का भारत के सन्दर्भ में यही महत्व है कि अमेरिका इसके निष्कर्षों को किसी भी प्रकार से श्री मोदी की यात्रा से बांधने का प्रयास न करें। श्री ब्लिंकन संभवतः चीनी राष्ट्रपति शी- जिनपिंग से भी भेंट करेंगे जिसमें वह अमेरिकी चिन्ताओं को किस तरह रखते हैं, यह देखने वाली बात होगी । वैसे चीन के सन्दर्भ में पिछले सत्तर के दशक के शुरू से ही अमेरिकी नीति में परिवर्तन आना शुरू हुआ था जब इसके विदेश मन्त्री हेनरी किसिंजर ने अपनी बीजिंग यात्रा करके तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति श्री रिचर्ड निक्सन की चीन यात्रा की भूमिका बांधी थी। इसके बाद से ही चीन में पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के दरवाजे खुलने शुरू हुए जिसके चलते आज यह कम्युनिस्ट पूंजीवाद का बहुत बड़ा इजारेदार बन चुका है। यदि हम गहराई से विश्लेषण करें तो अमेरिका व चीन के बीच का तनाव दो इजारेदारों के बीच का तनाव लगता है क्योंकि दोनों की ही मंशा किसी न किसी रूप में दुनिया के आर्थिक स्रोतों पर अपना एकाधिकार जमाने की लगती है। मगर एशिया में भारत के आर्थिक शक्ति के रूप में उभरने से चीन अपेक्षाकृत अधिक तनाव में लगता है जिसकी वजह से वह भारत के विरुद्ध इसकी छल सीमाओं से लेकर हिन्द महासागर तक के क्षेत्र में सामरिक गोलबन्दी करता नजर आता है। दूसरी तरफ अमेरिका की चीन के खिलाफ लामबन्दी भारत की कूटनीति के लिए चुनौतीपूर्ण परिस्थितियां पैदा करती नजर आती है मगर भारत ने इस मोर्चे पर जिस धैर्य के साथ अपनी कूटनीतिक चतुरता का परिचय दिया है उससे इसका महत्व बढ़ा है और अमेरिका को लगता है कि वह भारत को अपने खेमे में लाकर चीन को चुनौती दे सकता है। भारत ने अपनी नीति इस तरह बनाई है कि अमेरिका व चीन आपस के द्वंद्व को उसके सिर पर डालने की हिम्मत न जुटा सकें। अतः वह ब्रिक्स ( भारत, रूस, ब्राजील, चीन, दक्षिण अफ्रीका) को भी उतनी ही महत्ता देता है जितनी कि चतुष्कोणीय गठबन्धन ‘भारत- अमेरिका, आस्ट्रेलिया- जापान’ को। ब्लिंकन की चीन यात्रा बीजिंग व वाशिंगटन के बीच का ही मामला है । यह सन्देश भारत और खुलकर दे सकता है।