भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान

भ्रष्टाचार ऐसी बीमारी है जिसका इलाज राजनैतिक आग्रहों से ऊपर उठ कर निरपेक्ष भाव से किया जाना चाहिए परन्तु दिक्कत यह है कि इसकी असली वजह भी राजनीति में है।

भ्रष्टाचार ऐसी बीमारी है जिसका इलाज राजनैतिक आग्रहों से ऊपर उठ कर निरपेक्ष भाव से किया जाना चाहिए परन्तु दिक्कत यह है कि इसकी असली वजह भी राजनीति में है। लोकतन्त्र की प्रशासनिक व्यवस्था को अन्ततः राजनैतिक दल ही चलाते हैं अतः इसे दूर करने में उनकी भूमिका ही अहम होगी। हाल ही में 15 अगस्त को लालकिले की ऐतिहासिक प्राचीर से देशवासियों को सम्बोधित करते हुए प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि वह भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई को अंतिम चरण तक ले जाना चाहते हैं और इसमें देश की जनता का साथ व सहयोग चाहते हैं। इस सन्दर्भ में उन्होंने अपेक्षा की कि आम लोग भ्रष्टाचारियों के प्रति किसी प्रकार की सहानुभूति नहीं रखेंगे और सार्वजनिक जीवन में उन्हें कोई महत्व नहीं देंगे। यह तथ्य है कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में हर पांच साल बाद देश व राज्यों में सरकारों का गठन आम जनता ही अपने एक वोट की ताकत से करती है और अपनी मनपसन्द राजनैतिक पार्टियों के नेताओं के हाथ में सत्ता की चाबी सौंपती है। इस प्रकार बनीं सरकारें आम जनता की सम्पत्ति की ही रखरखाव करने वाली होती हैं, मालिक नहीं होती। 
नई सरकार को पिछली सरकार से जो कुछ भी मिलता है वह आम जनता की अमानत ही होती है। इस अमानत में खयानत करने को ही भ्रष्टाचार कहा जाता है।  जब कोई नेता खयानत करने लगता है तो उस सरकार के विभिन्न अंग भी इस प्रक्रिया में शामिल हो जाते हैं और इसका असर नीचे तक अफसर से लेकर चपरासी तक फैलता चला जाता है। सबसे अंत में यह आम जनता को भी प्रभावित करने लगता है और वह अपने सामान्य से लेकर टेढ़े कामों की सरलता के लिए भ्रष्टाचारी अमले का मुंह भरने लगती है। धीरे-धीरे यह संस्थागत रूप ले लेता है और सरेआम यहां तक कहा जाने लगता है कि अमुक मन्त्रालय मलाईदार है और अमुक मन्त्रालय सूखा व खुश्क है। परन्तु भारत में भ्रष्टाचार किस सीमा तक अपनी गहरी जड़ें जमा चुका है इसका सबसे ताजा उदाहरण प. बंगाल में शिक्षकों की भर्ती के लिए किये गये भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ है। एक जमाना था जब शिक्षा मन्त्रालय से लेकर शिक्षक तक को सबसे ज्यादा पवित्र विभाग व कार्य समझा जाता था। मगर जब शिक्षकों की भर्ती ही रिश्वत लेकर होगी तो वे पढ़ायेंगे किस दर्जे का ? इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। सबसे ज्यादा भ्रष्ट संभवतः आज भी पुलिस विभाग को माना जाता है मगर इस क्षेत्र में इसका दबदबा अब कम हो रहा है क्योंकि स्वयं राजनीतिज्ञों के नाम ही नये-नये रिकार्ड दर्ज हो रहे हैं । मगर यह भ्रष्टाचार ऐसा है जो हमारे दैनिक जीवन का अंग बन चुका है, जो हमारे दैनिक जीवन का अंग नहीं है वह महाभ्रष्टाचार सीधे राजनीति से जुड़ा हुआ है। राजनीति में ही भ्रष्टाचार के आरोपों में सजा काट रहे राजनीतिज्ञ स्वयं राजनैतिक दल चला रहे हैं और लोग उनकी वाह-वाही में तालियां बजा रहे हैं। 
बहुत साधारण सी बात है कि जब किसी पेड़ की जड़ में ही कीटाणु घुस चुका है तो उस पर लगने वाली पत्तियां व फल भी कीटाणु रहित नहीं हो सकती। यह देश महात्मा गांधी का देश कहलाया जाता है और गांधीवाद कहता है कि साधन और साध्य की शुचिता किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने की जरूरी शर्त होती है। साध्य चाहे कितना ही पवित्र क्यों न हो जब तक उसे पाने का साधन पवित्र नहीं होगा तब तक लक्ष्य की प्राप्ति दोषरहित नहीं हो सकती। परन्तु वर्तमान राजनैतिक दौर में हम इसे आदर्शवाद की स्थिति मान सकते हैं और कह सकते हैं कि साध्य की पवित्रता ही अभीष्ट मान कर चला जाना चाहिए क्योंकि कांटे को निकालने के लिए कांटे की ही जरूरत पड़ती है। किन्तु भारत में भ्रष्टाचार उन्मूलन की जब भी बात होती है तो राजनीति सबसे ऊपर आ जाती है और प्रत्येक राजनैतिक दल इस होड़ में पड़ जाता है कि ‘तेरा भ्रष्टाचार मेरे भ्रष्टाचार से बड़ा’ । इस क्रम में हम एक तथ्य स्वयं ही उजागर कर देते हैं कि भ्रष्टाचार शाश्वत हो चुका है। सवाल यह है कि इस बीमारी से छूटने का रास्ता कैसे निकाला जाये? बीमारी समाप्त करने के लिए भी किसी न किसी राजनीतिज्ञ को ही आना होगा क्योंकि इसकी जड़ तो राजनीति में ही है। अतः जब प्रधानमन्त्री इस बुराई से निजात पाने के लिए आम जनता से सहयोग मांग रहे हैं तो प्रत्येक नागरिक का दायित्व बनता है कि वह इस कार्य में अपना योगदान दें क्योंकि अन्त में लाभान्वित वही होगा। इसके लिए सबसे पहले भ्रष्टाचारियों के महिमामंडन को सिरे से नकारना होगा और उनकी जात-पांत या वर्ग अथवा समूह के आधार पर समाज को बांटने व वोट बैंक तैयार करने की राजनीति को पहचानना होगा। 
दरअसल इस प्रकार की राजनीति में भारत को कबायली दौर में लाकर खड़ा कर दिया है जिसमें हर कबीला अपने सरदार की बुराइयों पर पर्दा डालते हुए आंखें मींचे हुए चलता है। यह 21वीं सदी का दौर है और हमारे पास सरकार बनाने व बिगाड़ने का संवैधानिक अधिकार है । यह अधिकार छोटा नहीं है बल्कि आधुनिक समय में किसी भी नागरिक को मिला हुआ सबसे बड़ा अधिकार है। इस अधिकार की कीमत को हमें पहचानना होगा और राजनीतिज्ञों को बताना होगा कि असल में लोकतन्त्र के मालिक हम हैं वे तो सिर्फ हमारे नौकर हैं जिनका चयन पांच साल के लिए किया जाता है। मगर भ्रष्टाचारियों ने इसे उलट दिया है और वे भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल तक जाने के बाद अपनी पाकीजगी की डींगे हांकते रहते हैं। श्री मोदी ने अगर इस माया जाल को तोड़ने का बीड़ा का उठाया है तो उसे जिन्दाबाद से ही नवाजा जाना चाहिए। 
    ‘‘देखिये लाती है उस शोख की नख्वत क्या रंग 
     उसकी हर बाते पे हम ‘नामे- खुदा’ कहते हैं।’’

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