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चुनावों से पहले गिरगिटी रंग

चुनावों से पहले क्या गजब का खेल हो रहा है उत्तर प्रदेश में कि राजनीतिज्ञ गिरगिट की तरह रंग बदल कर एक पार्टी से दूसरी पार्टी में जा रहे हैं और इसकी वजह जनता का कल्याण बता रहे हैं।

चुनावों से पहले क्या गजब का खेल हो रहा है उत्तर प्रदेश में कि राजनीतिज्ञ गिरगिट की तरह रंग बदल कर एक पार्टी से दूसरी पार्टी में जा रहे हैं और इसकी वजह जनता का कल्याण बता रहे हैं। लोकतन्त्र में राजनीतिक मौसम में एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर उछलने-कूदने की कला को वास्तव में अवसरवादिता ही कहा जाता है परन्तु इसके पीछे कुछ बहुत गंभीर कारण भी हैं जिनका सम्बन्ध उत्तर प्रदेश की राजनीति से बहुत गहरे से जुड़ा हुआ है। इस प्रदेश की राजनीतिक संस्कृति पिछले तीस वर्षों में जनता से जुड़े मुद्दों से हट कर राजनीतिज्ञों के स्वार्थी मुद्दों से इस तरह जुड़ चुकी है। प्रदेश में शासन या सत्ता में रहने वालों की एक विशिष्ट जमात विकसित हो चुकी है। इनमें भी चुनीन्दा परिवार ही आपस में अदल-बदल करके सत्ता पर बैठते रहते हैं। ये परिवार कुछ खास दलों के बड़े नेताओं के हैं या फिर उनके मुंह लगे करीबी नेताओं के इसलिए राज्य की भाजपाई योगी सरकार के मन्त्री स्वामी प्रसाद मौर्य का मन्त्री पद से इस्तीफा देना ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि उनकी पुत्री बदायूं से अभी भी भाजपा सांसद हैं। अपने बेटे-बेटियों का राजनीति में भविष्य संवारने वाले ऐसे  नेताओं का सिद्धान्तवादी राजनीति से कैसे कोई मतलब हो सकता है जब उनके पुत्र को ही विधानसभा चुनावों का टिकट उनकी पार्टी द्वारा न दिया जाये। लोकतन्त्र में जब से जाति मूलक राजनीति का उदय उत्तर प्रदेश में हुआ है तभी से एक विशिष्ट जाति या वर्ग समूह के प्रभावशाली नेता अपना एक गिरोह बना कर भी रखने लगे हैं जो मौका पड़ने पर उसका अनुसरण करने को तत्पर रहता है। इसीलिए हम देख रहे हैं कि मौर्य के साथ एक-दूसरे मन्त्री दारा सिंह ने भी भाजपा का दामन छोड़ने का फैसला कर लिया। इससे पहले सहारनपुर जनपद के विवादास्पद कांग्रेसी नेता इमरान मसूद ने भी समाजवादी पार्टी में जाने का फैसला किया था। 
मौर्य व दारा सिंह के भी समाजवादी पार्टी में ही जाने की संभावना है। मगर यह मुगालता होगा कि इस प्रकार के दल-बदल से समाजवादी पार्टी के पक्ष में माहौल बनने लगेगा या धरातल पर कोई अन्तर आयेगा क्योंकि यह मात्र राजनीतिज्ञों द्वारा राजनीतिक माहौल बदलने की कोशिश है इसमें आम जनता की कोई सहभागिता नहीं है। इसका उदाहरण हमने प. बंगाल में देखा था जब पिछले वर्ष एक के बाद एक वहां की सत्ताधारी पार्टी तृणमूल कांग्रेस के नेता अपनी पार्टी छोड़ कर भाजपा में शामिल हो रहे थे मगर जब चुनाव परिणाम आये तो पूरा देश चौंक गया। अक्सर राजनीतिज्ञ आम जनता को कम अक्ल मानने की गलती कर देते हैं मगर भारत का लोकतन्त्र साक्षी है कि सबसे अधिक बुद्धिमान अन्त में जनता ही निकलती है।
 उत्तर प्रदेश के पिछले 2017 के चुनावों में मुख्यमन्त्री पद पर आसीन माननीय अखिलेश यादव ने सोचा था कि कांग्रेस पार्टी के साथ गठबन्धन करके वह चुनावी बाजी जीत सकते हैं मगर तब जनता ने ऐसी  पल्टी मारी थी कि समाजवादियों के हाथ के तोते उड़ गये थे। मैं भाजपा का पक्ष नहीं ले रहा हूं बल्कि केवल हकीकत बयान कर रहा हूं कि चुनाव शिकर स्तर पर किये गये गठबन्धनों के सहारे नहीं जीते जाते बल्कि आम जनता के बीच सकारात्मक विमर्श और एजेंडा रखने से जीते जाते हैं। उत्तर प्रदेश के चुनावों का प्रमुख एजेंडा कथित गुंडा राज बनाम कानून का शासन बन चुका है इसे न तो अब श्री यादव बदल सकते हैं और न योगी आदित्यनाथ। 
बेशक बेरोजगारी व महंगाई पर लोग बात कर रहे हैं मगर उनके जहन में प्रदेश की बदलती कानून व्यवस्था की स्थिति ने स्थायी जगह बना ली है। इसके साथ हमें यह भी देखना होगा कि कौन नेता दल बदल रहा है। चाहे दारा सिंह चौहान हों या स्वामी प्रसाद मौर्य, इनका प्रभाव आंचलिक स्तर पर ही है। पश्चिमी या मध्य उत्तर प्रदेश में इनकी कोई पहचान नहीं है। यदि उत्तर प्रदेश की राजनीति का गौर से विश्लेषण किया जाये तो राज्य की राजनीति में चौथे नम्बर पर आंकी जाने वाली कांग्रेस पार्टी की नेता श्रीमती प्रियंका गांधी की न केवल पूरे उत्तर प्रदेश में मजबूत पहचान है बल्कि मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ के बाद वह लोकप्रियता में दूसरे नम्बर पर आयेंगी परन्तु उनकी पार्टी का संगठनात्मक ढांचा इतना लचर हो चुका है कि उन्हें इस विशाल राज्य के विभिन्न छितरे हुए अंचलों में ही अपनी ताकत दिखानी पड़ेगी जबकि राज्य में हर मौके पर सक्रिय विपक्षी नेता की भूमिका श्रीमती प्रियंका गांधी ही पिछले तीन साल से निभाती आ रही हैं।  दरअसल उत्तर प्रदेश की राजनीति का यह विरोधाभास है कि चुनावी मौसम आ जाने के बावजूद अन्य विपक्षी पार्टियां कह रही हैं कि कांग्रेस जमीन पर कहां है? मगर इसकी वजह स्वयं कांग्रेस ही है जिसने 2017 के चुनावों में समाजवादी पार्टी के साथ गठबन्धन करने की भयंकर भूल की थी। इसका खामियाजा उसे इसलिए भुगतना पड़ेगा क्योंकि इसके नेताओं ने तब जातिमूलक राजनीति को आधिकारिक मान्यता तक प्रदान कर दी थी। मगर दल-बदल के इस मौसम में कुछ समाजवादी व कांग्रेस के नेताओं ने भी उत्तर प्रदेश में भाजपा की सदस्यता ग्रहण की है। परन्तु कुएं के मेंढक के समान नेताओं के एक पार्टी से दूसरी पार्टी में जाने पर लोग केवल यही सोचते हैं कि देखो नये कुएं के पानी में मेंढक कितनी ऊंची सांसें ले रहा है क्योंकि मेंढक का धर्म पानी को गन्दला बनाना ही होता है। 

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