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नागरिक संहिता का सवाल?

भारतीय नागरिकों के लिए एक समान नागरिक आचार संहिता के प्रश्न को जिस तरह मजहब या धर्म से जोड़ कर देखा जाता है उसका कोई औचित्य इसलिए नहीं है कि भारत कोई विचार प्रधान (आईडियोलोजिकल) राज्य नहीं है

भारतीय नागरिकों के लिए एक समान नागरिक आचार संहिता के प्रश्न को जिस तरह मजहब या धर्म से जोड़ कर देखा जाता है उसका कोई औचित्य इसलिए नहीं है कि भारत कोई विचार प्रधान (आईडियोलोजिकल) राज्य नहीं है बल्कि भू- प्रधान (टेरीटोरियल) राज्य है और इस राज्य का कोई धर्म या मजहब नहीं है। भारत के किसी भी भू-भाग में रहने वाला और किसी भी मजहब या मत का मानने वाला व्यक्ति इसका सम्मानित नागरिक होता है और संविधान उसे बराबर के अधिकार देता है। अतः सबसे पहले यह समझने की जरूरत है कि भारत का मतलब हिन्दू या मुसलमान होना नहीं बल्कि ‘नागरिक’ होना है। इसके लोग निजी तौर पर हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई-पारसी-जैन या बौद्ध हो सकते हैं मगर उनकी पहचान भारतीय की पहले है। इसके साथ ही भारत का संविधान धर्म मानने की स्वतन्त्रता भी देता है। इसका मतलब यही है कि कोई भी नागरिक अपने धर्म के अनुसार अपनी जीवनशैली बिताने के लिए स्वतन्त्र है परन्तु दुनियावी व्यवहार धर्म से अलग एेसा ‘धर्म’ या कर्त्तव्य है जिसका पालन करके ही कोई भी नागरिक अपनी रोजी-रोटी कमाता है। अतः रोजी-रोटी के मामले में धर्म या मजहब कहीं बीच में नहीं आड़े आता है और विभिन्न धर्मों को मानने वाले लोग आपस में सम्बन्ध स्थापित करके अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं। मगर भारत में 28 राज्य हैं जिनकी भौगोलिक व सांस्कृतिक परंपराएं अलग-अलग हैं। इसमें भी इनके अंचलों तक सांस्कृतिक विभिन्नताएं हैं। 
रंग-बिरंगे विविध रीति-रिवाजों वाले देश भारत में पारिवारिक नियमों का एक रूपण सिद्धान्त तैयार करना कोई सरल कार्य नहीं हो सकता। अतः सबसे पहले यह आवश्यक हो जाता है कि जिस एक समान नागरिक आचार संहिता की हम बात कर रहे हैं उसका कोई ठोस मसौदा सार्वजनिक विमर्श के लिए पेश किया जाये। मगर इससे भी ज्यादा जरूरी है कि विभिन्न धर्मों के बने निजी कानूनों या ‘पर्सनल लाॅ’ की दुनियावी नजरिये से समीक्षा की जाये। भारत में हिन्दू नागरिक आचार संहिता या हिन्दू कोड बिल 1956 तक ही खंडों में बांट कर अस्तिव में आया और विवाह व पैतृक सम्पत्ति के अधिकारों का फैसला बदलते समय के अनुसार हुआ और हिन्दुओं की कथित निजी कानूनों की धर्म पुस्तिका मनुस्मृति को अप्रसांगिक बना दिया गया। मगर इससे पहले ही 1939 में मुस्लिम धर्म के निजी कानूनों में यह व्यवस्था की गई कि पैतृक सम्पत्ति में घर की बेटी या महिला को भी हिस्सा मिलेगा और विवाहित महिला को भी अपने पति को तलाक देने का हक होगा। 
हिन्दू समाज में तो पचास के दशक से पहले पारिवारिक सम्पत्ति में स्त्री के हिस्से की कोई परिकल्पना ही नहीं थी। महिलाओं को तलाक देने का अधिकार देने का सवाल ही पैदा नहीं होता था क्योंकि स्त्री तो सात जन्मों के बंधनों में बंधने की सौगन्ध लेकर ही पतिव्रत धर्म से बंधी होती थी लेकिन संविधान निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर ने इन सब पुरुष सत्तात्मक रीति-रिवाजों के खिलाफ जाकर हिन्दू कोड बिल लिखा जिसे पं. नेहरू ने भारतीय संसद के माध्यम से लागू किया। इससे हिन्दू समाज में स्त्री के अधिकारों को लेकर क्रांतिकारी परिवर्तन आया और यह देश आगे बढ़ा। अब मुस्लिम समाज के रहनुमाओं का यह कर्त्तव्य बनता है कि वे अपने समाज को लोगों को यह समझायें कि ‘कुरान-ए-मजीद’ में स्त्री-पुरुष की बराबरी की बराबर हिदायत की गई है और मुसलमानों के लिए बनाया गया ‘शरीया’ कानून सलै-अल्लाह-अलै-वसल्लम हजरत मुहम्मद साहब के दो सौ या तीन सौ साल बाद लिखा गया। जिसे लिखने वाले बेशक इस्लाम के विद्वान ही रहे होंगे मगर यह उस समय के समाज की दुनियावी जरूरतों के मुताबिक ही रहा होगा। 
यह कहना मेरा नहीं है बल्कि इस्लामी व भारतीय कानून के विशेषज्ञ प्रोफेसर फैजान मुस्तफा का है। इसलिए बहुत जरूरी है कि मुस्लिम समाज अपने भीतर से ही अपने घरेलू निजी कानूनों की बदलते वक्त के अऩुसार समीक्षा करके किसी प्रगतिशील नजरिये पर पहुंचे जिससे नागरिक आचार संहिता का मुद्दा हिन्दू-मुस्लिम कशमकश का सबब न बन पाये। हिन्दू कोड बिल मूल रूप से लिखने वाले बाबा साहेब अम्बेडकर ने मुस्लिम कानून में स्त्री को हक दिये जाने से बहुत प्रभावित थे। हालांकि वह परिवार में मुस्लिम स्त्रियों की दयनीय हालत से भी चिन्तित थे जिसका कारण यह था कि स्त्री का रहन-सहन व पहनावा व व्यवहार तक को मुल्ला-मौलवियों ने मजहब से जोड़ दिया था। बेशक हिन्दुओं की पुस्तिका मनुस्मृति में भी स्त्री का धर्म केवल सेवा ही बताया गया है मगर स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान ही भारत के लोगों ने ही इसे कुरीति मान लिया था। इसके साथ ही हमें भारत के आदिवासी समाज के बारे में भी सोचना होगा और खास कर ऐसी जनजातियों के बारे में विचार करना होगा जिनकी संस्कृति व जीवनशैली की संरक्षण की गांरटी संविधान की अनुसूची पांच व छह में दी गई है। इसके तहत राज्यपालों को विशेषाधिकार प्राप्त हैं। 
हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि भारतीय संविधान में राज्यों के कुछ विशिष्ट अधिकार भी हैं जिनमें कानून व्यवस्था प्रमुख है। यही वजह है कि कई राज्य आपराधिक कानूनों में अपने राज्य की आवश्यकता के अनुसार संशोधन या जोड़-घटा करते रहते हैं। एक समान नागरिक आचार संहिता पर विचार करते हुए हमें ऐसे साझा बिन्दुओं पर पहुंचना होगा जिनमें दुनियावी मामलात पर हर मजहब की एक समान समझ हो। यह काम कठिन नहीं है। स्त्री और पुरुष दो स्वतन्त्र अस्तित्व होते हैं। यह प्रत्येक धर्म स्वीकार करता है अतः विवाह व पैतृक सम्पत्ति या उत्तराधिकार के नियम भी एक समान क्यों नहीं हो सकते।

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