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गांधी नाम ही कांग्रेस की ताकत

हाल ही में हुए पांच राज्यों के चुनावों में कांग्रेस पार्टी की करारी हार को लेकर इसके वरिष्ठ नेताओं के बीच जो विचार- विमर्श हुआ उसका नतीजा यही निकला कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व पर गांधी परिवार का अधिपत्य रहने से ही इसका भविष्य उज्ज्वल रह सकता है।

हाल ही में हुए पांच राज्यों के चुनावों में कांग्रेस पार्टी की करारी हार को लेकर इसके वरिष्ठ नेताओं के बीच जो विचार- विमर्श हुआ उसका नतीजा यही निकला कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व पर गांधी परिवार का अधिपत्य रहने से ही इसका भविष्य उज्ज्वल रह सकता है। इस मुद्दे पर पार्टी के सामान्य कार्यकर्ताओं से लेकर बड़े नेताओं के बीच मतभेद हो सकते हैं मगर इस तथ्य से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि केवल गांधी परिवार की वजह से ही कांग्रेस पार्टी भयंकर चुनावी पराजयों के बावजूद एकजुट है। हमें यह स्वीकार करने से कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि भारतीय उपमहाद्वीप की लोकतान्त्रिक राजनीति में व्यक्ति पूजा का विशिष्ट स्थान रहा है जिसके चलते केवल भारत में ही नहीं बल्कि बांग्लादेश से लेकर पाकिस्तान, म्यांमार व श्रीलंका तक में सत्ता पर काबिज रहने वाले विभिन्न दलों की कमान उन लोगों के हाथ में रही जो एक विशेष राजनैतिक नेतृत्व के वारिस रहे। लोकतान्त्रिक व्यवस्था के बीच अपने नायकों (हीरो) को चिन्हित करने की आम लोगों की इस मनोवृत्ति को हम बेशक राजतन्त्रीय या सामन्ती व्यवस्था का ही छोड़ा हुआ परिणाम (हैंगओवर) कह सकते हैं मगर लोक तान्त्रिक पद्धति की यह मजबूरी तब बन जाती है जब कोई राजनेता जन अपेक्षाओं का प्रतिबिम्ब बन कर उभरता है।
आजादी के बाद स्वतन्त्र भारत के लोगों ने यह प्रतिबिम्ब पं. जवाहर लाल नेहरू में उसी प्रकार देखा था जिस प्रकार आज प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी में देख रहे हैं। ऐसा  नहीं है कि 1952 के बाद भारत के प्रथम चुनावों में कांग्रेस या पं. नेहरू का कोई विरोध ही नहीं था बल्कि तब तक सात सौ के लगभग राजनैतिक दल बन चुके थे और चुनावी मैदान में कांग्रेस व पं. नेहरू को कड़ी टक्कर दे रहे थे। इनमें प्रमुख नाम डा. अम्बेडकर, डा. लोहिया, आचार्य नरेन्द्र देव, आचार्य कृपलानी, डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी व वीर सावरकर जैसे थे और कम्युनिस्ट पार्टी अलग से थी। मगर पं. नेहरू की लोकप्रियता के आगे इनमें से किसी की न चली मगर इसका मतलब तब यह नहीं निकाला गया कि चुनाव में परास्त राजनैतिक दलों का नेतृत्व नाकारा हाथों में है अथवा जनता के बीच उसका कोई आकर्षण ही नहीं है। जबकि हकीकत यह थी कि इन सभी नेताओं के पास कांग्रेस के विमर्श के ​विरुद्ध बहुत सशक्त और तार्किक जन-विमर्श भी थे। वर्तमान सन्दर्भों में इस तर्क की प्रासंगिकता यह है कि कांग्रेस पार्टी आज जिस तरह अपने भीतर की विषमताओं और विसंगतियों की शिकार बन रही है उसका ठीकरा नेतृत्व पर फोड़ने की कोशिश में कुछ नेता बदली हुई जमीनी राजनैतिक सच्चाई का मुकाबला करने से घबरा रहे हैं और सारा दोष गांधी परिवार के सदस्यों श्रीमती सोनिया गांधी से लेकर राहुल गांधी व प्रियंका गांधी पर लगा रहे हैं। जरा इनसे कोई पूछे कि जब 1996 के चुनावों से कांग्रेस पार्टी का ‘प्रभाव काल’  शुरू हुआ तो उससे उबारते हुए  किस नेता ने इस पार्टी को 2004 तक आते-आते सत्तारूढ़ पार्टी बनाया?
1996 में तो पार्टी का नेतृत्व स्व. सीताराम केसरी कर रहे थे जो बहुत ही सामान्य से परिवार से आते थे और कांग्रेस सेवा दल में बैंड बजाने से शुरूआत करके इसके कोषाध्यक्ष पद तक पहुंचे थे। इसके बाद ही श्रीमती सोनिया गांधी राजनीति में सिर्फ इसलिए आयीं क्योंकि वह स्व. इन्दिरा गांधी की पुत्रवधू थीं जबकि इन्दिरा जी की ही दूसरी पुत्र वधू मेनका गांधी ने भाजपा का दामन थाम लिया था। सोनिया गांधी स्व. राजीव गांधी की पत्नी थीं अतः कांग्रेसियों ने उनकी छत्रछाया में स्वयं को महफूज समझा और कांग्रेस की ‘नेहरू- इन्दिरा गांधी’ विरासत को अपनी पूंजी बनाया। यदि ऐसा  न होता तो 1998 में ही कांग्रेस बिखर जाती क्योंकि तब तक कांग्रेस से भाजपा में जाने की प्रक्रिया शुरू हो गई थी जो सबसे पहले स्व. कुमार मंगलम ने शुरू की थी जिनके पिता स्व. पी.के. कुमार मंगलम स्व. इन्दिरा गांधी के बहुत निकट समझे जाते थे और 70 के दशक में इन्दिरा मन्त्रिमंडल में केबिनेट मन्त्री भी थे मगर उनकी मृत्यु एक वायुयान दुर्घटना में हो गई थी लेकिन उन्हीं के पुत्र ने कांग्रेस छोड़ कर वाजपेयी मन्त्रिमंडल में बिजली राज्यमन्त्री की जगह पाई थी। अतः 2004 से 2014 तक श्रीमती सोनिया गांधी के नेतृत्व में ही कांग्रेस नीत मनमोहन सरकार सत्ता पर काबिज रही लेकिन बढ़ती उम्र व कुछ बीमारी के चलते उन्होंने अपने पुत्र राहुल गांधी के हाथ में कांग्रेस की कमान सौंपना उचित समझा जिससे पार्टी एकजुट रह सके लेकिन बदली हुई राजनैतिक परिस्थितियों में राहुल गांधी श्री नरेन्द्र मोदी व भाजपा का मुकाबला नहीं कर सके और कांग्रेस के खाते में लोकसभा की केवल 44 सीटें ही आयीं। इसके बाद 2019 के चुनाव में कांग्रेस केवल 54 सीटें ही जीत पाईं और उत्तर भारत में इसका प्रभाव सीमित होता गया मगर 2018 में इसने तीन राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ में बहुमत प्राप्त किया और अपनी सरकारें बनाई और उससे पहले 2017 में पंजाब में विजय प्राप्त की।
2017 में ही यह मणिपुर व गोवा में भी सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी मगर सरकारें नहीं बना सकी। यह सफलता किसके खाते में कांग्रेसी डालना पसन्द करेंगे? परन्तु हाल में हुए चुनावों में पांच राज्यों के चुनावों में यदि कांग्रेस की बुरी ‘गत’ बनी है तो नेतृत्व परिवर्तन से इसका परिमार्जन किस प्रकार हो सकता है? असली राजनैतिक प्रश्न तो तब भी वही रहेगा कि पार्टी किस तरह भाजपा के जन-विमर्श का मुकाबला करे। इसलिए असली दिक्कत वैकल्पिक ‘जन विमर्श’ की है नेता की नहीं और जन विमर्श पार्टी के विद्वान नेता ही तय करते हैं। इसका एक बहुत ही सादा व साधारण ताजा उदाहरण यह बात समझने के लिए काफी है कि जब 1971 के लोकसभा चुनावों से बहुत पहले कांग्रेस पार्टी पहली बार दो भागों में बंट गई और पार्टी के सभी दिग्गज नेता स्व. कामराज समेत स्व. निजलिंगप्पा व मोरारजी देसाई की सिंडिकेटी संगठन कांग्रेस में चले गये और इन्दिरा जी लगभग अकेली रह गईं और उसके द्वारा किये गये बैंकों के राष्ट्रीयकरण को भी सर्वोच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया तो उन्होंने अपनी पार्टी के विद्वतजनों की बैठक बुलाई जिसमें उस समय के माने हुए राजनैतिक पत्रकार स्व. श्रीकान्त वर्मा भी थे। स्व. वर्मा ने एक कागज पर यह नारा लिख कर आगे बढ़ा दिया कि ‘वे कहते हैं इन्दिरा हटाओ- इन्दिरा जी कहती हैं गरीबी हटाओ -अब आप ही चुनिये!’ इसे इन्दिरा जी ने तुरन्त लपक लिया और पूरे देश में कांग्रेस के चुनावी पोस्टरों पर यही नारा लिखवा कर हर शहर व गांव में चस्पा करा दिया गया। बजाये नेतृत्व परिवर्तन के कांग्रेस के नेता सत्ता से अलग होने पर क्या दिमागी तौर पर भी दिवालिये हो गये हैं? असली प्रश्न यही है। 

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