ऐसा लग रहा है जैसे देश में अपराधियों का उत्सव मनाया जा रहा है। एक व्यक्ति किसी की हत्या कर देता है और हत्या का वीडियो सोशल मीडिया पर डाल देता है। एक व्यक्ति किसी दूसरे को जिन्दा जला डालता है और उसे जिन्दा जलाए जाने को मोबाइल कैमरे में कैद करवाता है और फिर फेसबुक पर डाल देता है। बलात्कारी लड़कियों से बलात्कार करते हैं और पूरा वीडियो सोशल मीडिया पर डाल देते हैं। वीडियो वायरल होता है, लोग लाइक-डिस्लाइक करते हैं। अपराधी स्वयं को महिमामंडित करने में लगे हैं और देश घृणित घटनाओं का तमाशबीन बन रहा है। आश्चर्य की बात तो यह है कि समाज के कुछ वर्ग इन घटनाओं को जाति-धर्म से जोड़कर अपराधियों के समर्थन में उतर रहे हैं। अपराधियों की गिरफ्तारी के खिलाफ प्रदर्शन होते हैं। कठुआ बलात्कार कांड में हमने देखा कि किस प्रकार कुछ लोग आरोपियों के बचाव में उतर आए। बलात्कारी, हत्यारे और गुंडे समाज में नायक बन रहे हैं। लोगों को पीट-पीटकर मारा जा रहा है। मॉब लिंचिंग की घटनाएं कभी न खत्म होने वाला शो बन गई हैं। सब सोचने पर विवश हैं कि आखिर समाज में हो क्या रहा है। यह कैसी मानसिकता है जहां अन्यायपूर्ण हो रही हत्या के आरोपी पुलिस वाले को बचाने के लिए पुलिस कर्मचारी अपनी बाजू पर काली पट्टी बांधकर काला दिवस मनाते हैं।
आरोपी की पत्नी के बैंक खाते में लाखों रुपए डाले जाते हैं ताकि वह किसी नामी-गिरामी वकील की सेवाएं लेकर अपने पति का केस लड़ सके। पुलिस का दायित्व कानून और व्यवस्था की देखरेख करना है। पुलिस वालों का दायित्व लोगों की रक्षा करना और उनकी मदद करना भी है। बड़े से बड़े मामलों की तह तक पहुंचने और उन्हें सुलझाने में एक सिपाही की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है लेकिन सोचिये, स्थिति कितनी भयावह है कि उत्तर प्रदेश में जमीनी स्तर पर काम करने वाले सिपाही ही विद्रोह पर उतर आए हैं और वह भी एप्पल कम्पनी के एरिया सेल्स मैनेजर विवेक तिवारी की बर्बर हत्या के आरोपी के समर्थन में सोशल मीडिया पर पुलिस वाले ही कैम्पेन चला रहे हैं। देश के सभी सशस्त्र बलों में अनुशासन होना बहुत जरूरी है। यदि जमीनी स्तर पर समाज में रहकर काम करने वाली पुलिस ही अनुशासनहीन हो जाए तो क्या होगा।
विवेक तिवारी की विधवा कल्पना आतंकित है क्योंकि उसका घर तो पुलिस लाइन के बिल्कुल पास है। उसने भी हत्यारोपी प्रशांत चौधरी के समर्थन में अभियान चलाने वालों को अपने दिल की आवाज सुनने की अपील की है। सिपाहियों के बगावती स्वरों ने पुलिस के आला अधिकारियों के हाथ-पांव फुला दिए हैं। आखिर ऐसा क्यों हुआ? ऐसा लगता है कि पुलिस के आला अधिकारियों का सिपाहियों से कोई संवाद ही नहीं था। जब संवादहीनता की स्थिति आती है तो बड़ी घटनाएं होती हैं। ऐसा पुलिस में ही नहीं समाज में भी है। ऐसे कौन से कारण रहे जिसने पुलिसकर्मियों को अनुशासन तोड़ने को प्रेरित किया जबकि उत्तर प्रदेश में ‘इनसाइटमेंट टू डिसएफेक्शन एक्ट-1992’ लागू है जो पुलिसकर्मियों काे सरकारी नीतियों की आलोचना करने से रोकता है। इसके उल्लंघन पर सजा का भी प्रावधान है। अनुशासन तोड़ने वाले कुछ पुलिसकर्मियों को निलम्बित भी किया गया है लेकिन पुलिसकर्मी कहते हैं कि उन्हें सस्पेंड होने का डर नहीं है। सरकार कितने इंस्पैक्टर और सब-इंस्पैक्टरों को निलम्बित करेगी।
पुलिस महानिदेशक कहते हैं कि पुलिस बल ढाई लाख जवानों का बल है। कुछ सिपाहियों का विरोध करना उसे विद्रोह नहीं कहते हैं लेकिन उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी। 1973 में भी उत्तर प्रदेश पीएसी के जवानों में असंतोष फूट पड़ा था। दिल्ली तक आनन-फानन में खलबली मच गई थी। उस समय राज्य में पं. कमलापति त्रिपाठी की सरकार थी। मामला यह था कि पीएसी के जवानों को मैस में घटिया खाना परोसा जाता था। तब न इंटरनेट था और न ही सोशल मीडिया। आला पुलिस अधिकारी घटिया खाने को लेकर पीएसी जवानों की पीड़ा को समझ नहीं पाए। कुछ शिकायतें हुई भी लेकिन उन्हें भी नजरंदाज कर दिया गया। अन्ततः पीएसी जवान बगावत पर उतर आए और सेना बुलानी पड़ी। सेना ने पुलिस लाइन्स को घेर लिया। पीएसी जवान और सेना आमने-सामने आ गईं। सेना ने विद्रोहियों को तो काबू कर लिया लेकिन कार्रवाई में कुछ जवान मारे गए थे। पं. कमलापति त्रिपाठी को अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी थी। राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा था।
वास्तव में पुलिसकर्मियों में रोष का मामला पुलिस सुधारों से जुड़ा हुआ है। घर से दूर रहना, छुट्टी न मिलना, अत्यधिक दबाव आैर समयबद्ध ड्यूटी का न होना भी कारण हैं। पुलिस विभाग को विवेकशील, सहिष्णु बनाने के लिए पुलिस सुधार बहुत जरूरी हैं। उम्मीद है कि योगी आदित्यनाथ सरकार पुलिस सुधारों पर जोर देगी और पुलिस के आलाधिकारी पुलिस के जवानों से लगातार संवाद कर उन्हें सही रास्ते पर लाएंगे। यह भी देखना होगा कि इस पूरे प्रकरण के पीछे केवल जवानों का रोष है या कोई सियासी राजनीतिक चाल। अगर कोई सियासी चाल है तो उसे भी नाकाम करना होगा। चाहे इसके लिए पूरे पुलिस विभाग की स्कैनिंग ही क्यों न करनी पड़े।